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अथ संविग्न साधुयोग्यं नियम कुलंकम्
'किंचि वि वेरग्गेणं,
गिहिवासो छड्डियो जेहिं ॥४१॥ शरीर के सब बंधनों में शिथिलता है या यदि दुर्बल भी है ऐसे दुर्बल संघयण वाले जिन्होंने कुछ वैराग्य के कारण गृहस्थाश्रम छोडा है उन्हें भी ये नियम शुभ फल देने वाले है ॥४१॥ संपइ काले वि इमं,
काउं सक्के करेइ नो नियमो। सो साहुत्त गिहित्तण--
उभयभट्टो मुणेयवो.. ॥४२॥ संप्रति काल में भी सुख पालने योग्य इन नियमों को सम्मान पूर्वक पाले नहीं तो उन्हें साधुत्व तथा गृहस्थपन से भ्रष्ट जानना चाहिये ॥४२॥ जस्स हिययंमि भावो,
थोवो वि न होइ नियम गहणंमि । तस्स कहणं निरस्थय, ___ मसिरावणि कूवखणणं व ॥४३॥
जिनके हृदय में लेश मात्र भी इन नियमों को ग्रहण करने का भाव न हो, उन्हें इसका उपदेश देना मरुभूमि
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