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________________ वैराग्य कुलकम् [ १८७ अर्थ-विषयों किंपाकवृक्ष के फल के समान हैं, हलाहल [विष-झेर ] जैसे हैं, पापकारी हैं, मुहूर्त मात्र सुन्दर और परिणामे दारुण स्वभाव वाले हैं ॥६॥ भुत्ता य दिव्वभोगा, सुरेसु असुरेसु तहय मणुएसु । न यजीव ! तुझ तित्ती, जलणस्स व कट्ठनियरेहि ॥७॥ अर्थ:-सुर और असुर लोक में, तथा मनुष्य भव में दिव्य भोगो भोगवने पर भी, हे जीव ! काष्ट से जैसे अग्नि तृप्त नहीं होती है वैसे ही तुमको भी भोगों से तृप्ति नहीं होती हैं ॥७॥ जह संझाए सउणाणं, संगमो जह पहे य पहियाणं । सयणाणं संजोगो, तहेव खणभंगुरो जीव ! ॥८॥ अर्थ- जैसे सन्ध्या काल में पक्षीओं का मिलन और मुसाफरी में मुसाफरों का समागम क्षणभंगुर होता है, वैसे हे जीव ! स्वजन कुटुम्बीजनों का समागम भी क्षणिक होता है ऐसा समज ॥८॥ पिय माइभाइभइणी, भजापुत्ततणे वि सव्वेवि । सत्ता अणंतवारं, जाया सव्वेसि जीवाणं ॥१॥
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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