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________________ १८० ] इरियावहि कुलकम् पुनः संज्ञी पंचेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय इन प्रत्येक के जलचर, स्थलचर, खेचर, उरः परिसर्प और भुजपरिसर्प इस प्रकार पांच पांच भेद होने से दस भेद होते हैं । इसके फिर पर्याप्ता और अपर्याप्ता गिनते हैं तो बीस भेद होते हैं, इस प्रकार सब मिलकर तिर्यञ्च के अडतालीस भेद होते हैं | ४ | पंचदस कम्मभूमी य सुविसालया, तीस कम्मभूमी य सुहकारया । तंतरद्दीव तह पवर छप्पराणयं, मिलिय सय महिय मेगेण नटठायां ||५|| सुविशाल पन्द्रह कर्म भूमिओं, सुखवाली तीस अकर्मभूमिओं, तथा छप्पन्न अंतरद्वीप इस प्रकार मनुष्य को उत्पन्न होने के कुल एक सौ एक स्थान है ॥ ५ ॥ तत्थ श्रपजत्तपज्जत्तनरगन्भया, वंतपित्ताइ श्रसन्निपजत्तया । मिलिय सव्वे वितं तिसय तिउत्तरा, मणुयजम्मम्मि इय हुंति विविहत्तरा ॥ ६ ॥ वहां पर पर्याप्ता तथा अपर्याप्त भेद से दो भेद वाले मनुष्य होते हैं। उसके २०२ भेद और उनके वमन गर्भज
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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