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इरियावहि कुलकम्
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॥ अथ इरियावहि कुलकम् ॥ नमवि सिरि वद्धमाणस्स पय पंकयं,
भवि अलि जि भमरगण निच्च परिसेवियं । चउरगइ जीव जोगीण खामण कए,
भणिमुकुलयं श्रहं निसुणियं जह सुए || १ |
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भव्य जीवो रूपी भ्रमरों से सेवित श्री महावीर प्रभु के चरण कमलों को नमस्कार करके चार गतिमय जीवायोनियों से क्षमा मांगने हेतु जैसे मैंने सिद्धान्त में सुना है वैसा ही कहता हूं ॥ १ ॥
नारयाणं जिया सत्तनरपुब्भवा, प जपज्जत्तभेएहिं जउदुसधुवा । पुढविपतेयवाउवणस्सईणं तथा, पंच ते सुहुमथूला य दस हुंतया
॥२॥
सप्त नरक पृथ्विओं में उत्पन्न नरक जीवों के सात प्रकार है, उसके सात पर्याप्ता और सात अपर्याप्ता मिल कर कुल चौदह भेद होते है । तथा तिर्यञ्च में पृथ्वीकाय अप्पकाय,