SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इरियावहि कुलकम् [ १६ ] ॥ अथ इरियावहि कुलकम् ॥ नमवि सिरि वद्धमाणस्स पय पंकयं, भवि अलि जि भमरगण निच्च परिसेवियं । चउरगइ जीव जोगीण खामण कए, भणिमुकुलयं श्रहं निसुणियं जह सुए || १ | १७८ ] भव्य जीवो रूपी भ्रमरों से सेवित श्री महावीर प्रभु के चरण कमलों को नमस्कार करके चार गतिमय जीवायोनियों से क्षमा मांगने हेतु जैसे मैंने सिद्धान्त में सुना है वैसा ही कहता हूं ॥ १ ॥ नारयाणं जिया सत्तनरपुब्भवा, प जपज्जत्तभेएहिं जउदुसधुवा । पुढविपतेयवाउवणस्सईणं तथा, पंच ते सुहुमथूला य दस हुंतया ॥२॥ सप्त नरक पृथ्विओं में उत्पन्न नरक जीवों के सात प्रकार है, उसके सात पर्याप्ता और सात अपर्याप्ता मिल कर कुल चौदह भेद होते है । तथा तिर्यञ्च में पृथ्वीकाय अप्पकाय,
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy