SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सारसमुच्चय कुलकम् [ १७३ जिसने भयंकर अपकार किया है तुम्हारा ऐसा कर्म शत्रु अत्यन्त बलवान है। इसकी उपेक्षा करने से जैसे व्याधि शरीर को नष्ट करती है वैसे यह भी आत्मा का अहित करता है ॥ २७ ॥ माकुणह गयनिमोलं, कम्मविघायंमि किं न उजमह । लक्ष्ण मणुयजम्म, मा हारह श्रलियमोहहया ॥२८॥ हे जीव ! कर्म को नष्ट करने में तू परिश्रम क्यों नहीं करता है, इसके साथ हाथी की तरह आंखमिचौनी मत खेल । मिथ्या मोह में भ्रमित तू उत्तम मनुष्य जन्म पाकर भी हार मत ॥२८॥ श्रच्चंत विवजासिय मइणो परमत्थदुक्खरूवेसु। संसारसुहलवेसु, ___ मा कुणह खणं पि पडिबंधं ॥२॥ आत्मा के स्वभाव से अत्यन्त उलटी बुद्धि वाले जीवों को परमार्थ से संसार के दुःखस्वरूप सुखों में क्षण भर भी प्रतिबन्धित मत कर ॥ २९ ॥
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy