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________________ खामणा कुलकम देवगति में आभियोगिक देव बने मेरे द्वारा अन्य देवों की ऋद्धि में इर्षा मत्सर भाव से या मोह परवश होकर उन्हें दुःख दिया हो तो उन सबसे क्षमा याचना करता हूं ॥३१॥ इय चउगइमावन्ना, जे के वि य पाणिणो मए वहिया । दुक्खे वा संठविश्रा, ते खामेमो श्रहं सब्वे ॥३२॥ इस प्रकार चारों गतिओं में मेरे द्वारा परिभ्रमण करते हुए जिन जिन जीवों को मारा हो, दुःख दिया हो तो उन सबसे मैं क्षमा याचना करता हूं ॥३२।।। सवे खमंतु मझ, यह पि तेसिं खामेमि सव्वेसि । जे केणइ अवरद्धं, वेरं वइउण मज्झत्थो ॥३३॥ ये सारे जीव मुझे क्षमा करें, में भी उन्हें मेरे अपराध के लिये क्षमा करता हूँ । तथा वैरभाव छोड-मध्यस्थ भाव से क्षमा याचना करता हूँ ॥३३॥ नय कोइ मज्झ वेसो, सयणो वा एत्थ जीव लोगंमि । दसणनाणसहावो, एक्को हं निम्ममो निचो ॥३४॥ इस जीव लोक में मेरा कोई शत्रु नहीं है। या मेरा कोई स्नेही-स्वजन नहीं है, मैं दर्शन ज्ञानमय स्वभाव वाला निर्मम और नित्य अकेला शाश्वत् रूप से ही हूँ ॥३४॥
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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