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________________ श्री मात्मावबोध कुलकम् [ ११५ भारी होकर समुद्र में डूब जाती है, और संसार सागर में डूब जाती है ।। १६ ॥ जा सुविणे वि हु दिट्टा, हरेइ देहीण देह सबस्सं । सा नारी मारा इव, चयसु तुह दुबलत्तेणं ॥२०॥ स्त्री जो स्वप्न में भी मनुष्य का सर्वस्व हरण कर लेती है, उस स्त्री को अपस्भार का रोग समझ कर उसका त्याग कर ॥ २० ॥ अहिलससि चित्तसुद्धि, रजसि महिलासु श्रदह मूढत्तं । नीली मिलिए वत्थे, धवलिमा किं चिरं ठाई ? ॥२१॥ हे चित्त ! तू मनशुद्धि की इच्छा भी करता है तथा स्त्रियों में आसक्त भी रहता है, कैसी मुर्खता है ? नील में रंगा हुआ वस्त्र कैसे शुभ्र रह सकता है विषयासक्त मन कैसे शुद्ध बन सकता है ? ॥ २१ ॥
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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