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________________ उल्लास] श्रीपञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी. ११४ जिनेश्वरोना गणधरनी संख्यागणधर संख्या सहु जिनवरनी, ऋषभादिक्रमसे जानो जी। चोरासी पंचा' एकसो दो अरु, एकसो सोले ठानोजी॥ शत एकसो-सात ने पंचागुं, तिराणुं अठयासि एकासी जी। छियंतर छासठ सतवन पचास, तियाली छत्तीस विकासी जी पेंतीस तेंतीस अडविस अढार, सतर ग्यारे दश नंदाजी । एहिज संख्या गणधरकेरी, पिण ग्यारे वीरजिणंदा जी ॥ सर्व गणधर चौदेसो वावन, दोय हीन गणसंख्या जी । सूरिराजेन्द्रना शासन माहीं, धारक प्रवचन बहु वंका जी ११५ जिनेश्वरोना साधुओनी संख्याऋषभादिक मुनिवरतणी, संख्या क्रम इम जान । सहस चोरासि लाख इक, दोय तीन वलि मान ॥३४३॥ तीनलाख ने वीससहस, सहस तीस लख तीन । लाख तीन अढी दोय इक, शीतलजिन लग लीन ॥३४४॥ चोराशी बहोत्तर सहस, अडसठ छासठ मान । चोसठ वासठ साठ अरु, पचास चालिस जान ॥३४५॥ तीस वीस अढार सहस, सोले चौद हजार । सर्वमुनि अडवीस लख, सहस अडयालि सार ॥३४६॥
SR No.022123
Book TitlePanchsaptati Shatsthan Chatushpadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri, Yatindravijay
PublisherRatanchand Hajarimal Kasturchandji Porwad Jain
Publication Year1935
Total Pages202
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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