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११२ श्रीपञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी. चतुर्थस्वेदमलाऽऽमय रहित देह, सुगंध रूप संजुत्त । रूधिर मांस गोक्षीर सम, दुर्गन्ध भयकर मुत्त ॥२९६॥ चर्मचक्षु देखे नहीं, जिनाऽऽहार निहार । स्वास कमलगंध समो, जन्ममुं जाणो चार ॥२९७॥ समवसरण योजनमयी, कोटाकोटि प्रमाण । तिरि सुर नर भावे सहु, बाधा नहिं तिण ठाण ॥२९८॥ सुर तिरि नरने परिणमे, स्खभाषा जिनवाच । पूठे भामंडल रहे, सूर्य ते आगे काच ॥२९९ ॥ रोग वैर ईति मरि डमर, दुर्भिक्ष अति वृष्टि ।। अवृष्टि पण होवे नहीं, सवासो जोयण पुष्टि ॥ ३०० ॥ इग्यारे कर्म खप्यां कह्यां, हिवे सुरकृत विचार ।। समवसरण सुरवर रचे, रूडा तीन प्राकार ॥३०१॥ अशोकवृक्ष सिंहासन, पादपीठ ते होय । धर्मचक्र चले गगनमें, जिनसम रूप चउ जोय ॥३०२॥ छत्र तीन चामर ढुले, दुन्दुभिरव आकाश । रत्नमय इन्द्रध्वज चले, कनक-पद्म पद न्यास ॥३०३॥ कुसुमवृष्टि वर्ण पांचनी, सुगंधि जल वरसात । अनुकूल पवन संचरे, तेरम ए विख्यात ॥३०४ ॥ इन्द्रियार्थ अनुकूल ऋतु, प्रदक्षिणा पंखि देय । नख रोम वृद्धि ना हुवे, अधोमुख कंटक लेय ।।३०५॥