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उल्लास ]
श्रीपञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी.
श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छावतंसाऽऽबालब्रह्मचारि - विशुद्धतमचारित्राऽऽरामविहारि - कलिकालसर्वज्ञकल्प - जङ्गमयुगप्रधान-शासनसम्राद्-परमयोगिराज - जगत्पूज्य - गुरुदेव - प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर - विरचितायां पञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पद्यां त्रिचत्वारिंशत्स्थानवर्णनो नाम तृतीयोल्लासः ।
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९९ जिनेश्वरोनी निर्दोषता
दोष अढारे रहित जिन भाण, दान लाभ वीर्य भोग ए जाण, उपभोग अंतराय माण । मिच्छत्त अज्ञान ने अविरति होवे, काम भोग अरु इच्छा जोवे, हास्यादिक षट् खोवे || हास्य रति अरति भय शोकज कहिये, जुगुप्सा राग द्वेष निद्रा लहिये, विन दोषे जिन सद्दहिये ॥ २९३ ॥
हिंसा मृषा चोरी क्रीडा ने रत्ति, अरति हास्य शोक भय कोह मानत्ति, माया लोभ मदत्ति । मत्सर अज्ञान ने निद्रा प्रेम, प्रकारान्तरे ए पिण तेम, दोष रहित जिन नेम | सूरिराजेन्द्र सहु भाव दयालु, दोष न लेश जिनमें कछु भालु, शरणागत जन पालु ॥ २९४ ॥
१०० जिनेश्वरोना अतिशय
चार अतिश्य जन्मथी, घनघाति गये ग्यार । उगणिस देव कर्या हुवे, चतुत्रिंशदतिशय धार ॥ २९५॥