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उल्लास ]
श्रीपञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी.
अयोध्या ने विजयपुर, ब्रह्मस्थल जयकार | पाटलिखंड अरु पद्मखंड, श्वेत रिष्ट पुर धार ॥ २४३ ॥ सिद्धार्थपुर ने महापुर, धान्यकड वर्द्धमान | सौमनस्य मंदिर चक्रपुर, राजपुर मिथिला जान ॥ २४४॥ राजगृह ने वीरपुर अरु, द्वारवती शुभ होय । कोपकट कोल्लाग ए, सन्निवेश कहे लोय ।। २४५ ।।
७९ जिनश्वरोना प्रथम भिक्षादायक --
जिनवर किया पारणा, प्रथम भिक्षा दातार । तेहना नाम क्रमसे कहुं, जिनभक्ती आधार ॥ २४६ ॥ श्रेयांस ब्रह्मदत्त सुरेन्द्र-दत्त इन्द्रदत्तेश | पद्म सोमदेव माहेन्द्र, सोमदत्त पुष्येश पुनर्वसु नन्द सुनन्द, जय विजय धर्मसह । सुमित्र व्याघ्रसिंह अरु, अपराजित गुण लीह ॥ २४८ ॥ विश्वसेन ने ब्रह्मदत्त, दिन अरु वरदिन्न ।
।। २४७ ॥
धन्य बहुलवित्र इम ए, नाम लहो भिन्न भिन्न ॥२४९॥ ८० जिनेश्वरोने भिक्षा देनाराओनी गति
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एकादि अड दातार, तेहिज भव सिध्धि गया । शेष तीजे भव धार, अहवा तद्भव जानिया ॥ २५० ॥ दीक्षा ग्रही जिन पास, ते सिद्धिबधुने वर्या । अविचल पाम्या वास, संसार - सागरने तर्या ॥२५१ ॥