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श्रीपञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी.
सिद्धार्थ वन में ऋषभ, नीलगुहा सुव्रत । विहारगेह वासुपूज्य, वप्रगा धर्म सुवृत्त ॥ २३५ ।।
[ तृतीय
आश्रमपद में पार्श्वजिन, ज्ञातखंडवन वीर । सहस्रावने शेष जिन, लीनो व्रत तजि पीर ॥ २३६ ॥ चउमुष्टि ऋषभदेवनी, पंचमुष्टि जिन शेष । लोंच कर्यां पछी वलि, न रहे लोंच किलेश ॥२३७॥ ७४-७५ देवदूष्य वस्त्र अने तेनी स्थिति-—
लाख मूल्यनो देवदृष्य शक्र ठवे जिन खंध । सदा तेवीस जिनने रहे, सचेल एह मुणिंद ॥ २३८ ॥ वर्ष एक अधिको धरे, अनुकंपा लहि वीर । आयो दयालुए विप्रने, राख्यो न पासे चीर ॥२३९॥
७६-७७ पारणाद्रव्य अने पारणासमय
ऋषभ इक्षुरस पारणे, परमान्ने तेवीस ।
प्रथम पारणे ए सही, जाणो विश्वा वीस ॥ २४० ॥ वरसे ॠषभने पारणं, दिन दूजे जिन शेष । परीषहशूरा जानिये, अडग अमल हमेस ॥ २४१ ॥
७८ जिनेश्वरोना पारणा नगर
जिनवर पारणा ज्यां कर्या, नगर अनुक्रम एह । हस्तिनापुर ने अयोध्या, श्रावस्ती ससनेह ॥ २४२ ॥