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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वाविंशाधिकारः, प्रशस्तिः । भावार्थ-जिनशासन इहलौकिक तथा पारलौकिक समस्त सुखोंका तथा दुःखके लेशसे भी रहित मुक्ति-सुखका मूलबीज है, उसके विना सुखका लेश भी प्राप्त नहीं हो सकता । पंचास्तिकाय आदि संसारके समस्त पदार्थोंका तथा संसारके स्वरूप और मुक्तिके मार्गका प्रतिपादन भी जिनशासन ही करता है । अथ च जिस धनसे समस्त सुखोंकी प्राप्ति की जा सकती है, वह धन भी जिनशासन ही है । द्रव्य, पर्याय और नयका विवेचन करनेवाला वह जिनशासन अन्य शासनोंसे स्वतन्त्र और अद्भुतरूपमें उपस्थित होकर सदैव जयशील रहता है ।
टीकाकारस्य प्रशस्तिः
श्रीहरिभद्राचार्य रचितं प्रशमरतिविवरणं किश्चित् । परिभाव्य वृद्धटीकाः सुखबोधार्थ समासेन ॥ १ ॥ अणहिलपाटकनगरे श्रीमजयसिंहदेव नृपराज्ये । वाणवसुरुद्र (१९८५) संख्ये विक्रमतो वत्सरे व्रजति ॥२॥ श्रीधवलभांडशालिकपुत्रयशोनागनायकवितीर्णे । सदुपाश्रये स्थितैस्तैः समार्थतं शोधितं चेति ॥ ३॥
अर्थ-प्रशमरतिप्रकरणका यह संक्षिप्त विवरण (टीका ) श्रीहरिभद्राचार्यने पूर्वाचार्योंकी टीकाओंका मनन करके इस दृष्टि से लिखा है कि जिसके पाठक इससे मर्मको सरलतासे समझ सकें। उन्होंने इसकी रचना जयसिंहदेवके राज्यके अन्तर्गत अणहिलपाटकनगरमें वि० सं० ११८५ में श्रीधवल भांडशालिकके पुत्र यशोनाग नायकके द्वारा अर्पित किये गये उपाश्रयमें की और वहींपर इसका संशोधन भी किया।
॥ इति प्रशमरतिटीका ॥