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रायचन्द्रजेनशास्त्रमालायाम् [एकविंशाधिकारः, शिवगमनम् यहाँ नहीं ठहरता । तथा मुक्तजीव कोई ऐसी क्रिया भी नहीं करता, जिसके कारण उसके यहाँ ठहरनेकी कल्पना की जा सके । अतः वह यहाँ नहीं ठहरता है।
एवं तर्ध्विमेव तेन गन्तव्यं नान्यत्रेति कुतो नियम इत्याह
शङ्का-यदि मुक्तजीव यहाँ नहीं ठहरता है तो न ठहरो; किन्तु उसे ऊपर ही जाना चाहिए, अन्यत्र नहीं, ऐसा नियम किस कारणसे है ?
नाधो गौरवविगमादशक्य (दसंग ) भावाच गच्छति विमुक्तः ।
लोकान्तादपि न परं प्लवक इवोपग्रहाभावात् ॥ २९२ ॥ टीका-यतो गुरुद्रव्यमधो गच्छद् दृष्टं पोषाणादि, तस्य गौरवं नास्त्यपेतकर्मत्वात । अशक्यभावाच्च अशक्योऽनुपपन्नः खल्वयं भावो यत् सर्वकर्मावनिर्मुक्तोऽत्यन्तलघुरधो गमिष्यतीति । न च लोकान्तात् परतो गच्छति, उपग्रहकारिधर्मद्रव्याभावात् । प्लवकस्तारकस्तद्वत् यानपात्रवत् मत्स्यादिवद्वा । स्थलेषु गमनशक्तेरभावात् ।। २९२ ॥
अर्थ-मुक्तजीव नीचे नहीं जाता है, क्योंकि उसमें गौरवका अभाव है और ऐसा होना किसी प्रकार शक्य भी नहीं है । जहाज आदिकी तरह लोकान्तसे आगे भी नहीं जाता है; क्योंकि वहाँ सहायक धर्मद्रव्यका अभाव है।
भावार्थ-पाषाण वगैरह भारी-भरकम पदार्थ नीचे जाते हुए देखे जाते हैं । किन्तु मुक्तजीवमें भारीपन नहीं है । क्योंकि वह कर्मोके मारसे मुक्त हो चुका है। फिर यह बात किसी प्रकार सम्भव नहीं है कि समस्त कर्मोंसे मुक्त हुआ अत्यन्त लघु जीव नीचे जावे । अतः नीचे नहीं है । इसलिए ऊर्ध्वगमन ही युक्त है । पर ऊपर भी लोकके अन्तसे आगे नहीं जाता है; क्योंकि गमनमें सहायक धर्मद्रव्य लोकके अन्ततक ही पाया जाता है। आगे उसका अभाव है। अत: जिस प्रकार जहाज या मछली वहींतक जा सकते हैं जहाँतक उनका सहायक पानी होता है, उसी प्रकार मुक्तजीव भी वहीतक जाते हैं जहाँतक सहायक धर्मद्रव्य वर्तमान है।
योगप्रयोगयोश्वाभावात्तिर्यग्न तस्य गतिरस्ति ।
सिद्धस्योर्ध्वं मुक्तस्यालोकान्ताद् गतिर्भवति ।। २९३ ॥ __टीका-योगा मनोवाक्कायलक्षणास्तदभावात् । प्रयोग आत्मनः क्रिया तदभावाच्च । तिर्यग्दिक्षु प्राच्यादिकासु । न तस्य गतिसंभवः । तस्मादधस्तिर्यग्वा गतेरसंभवात् । इहैव चावस्थाने नास्ति किञ्चित्कारणमतो गच्छत्यूर्ध्वमेव सिद्धः । सा चोर्ध्वगतिरालोकान्तादेव भवति, न परतः, उपग्रहाभावादित्युक्तं च ॥ २९३॥
-दसङ्ग भावाच-फ००। २-पग्रहोभा-ब०। ३-यो गु-फ०ब०। ४-दृष्टमुपलादि-फ० ०य