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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
ये तीर्थकृत्प्रणीता भावास्तदनन्तरैश्च परिकथिताः । तेषां बहुशो ऽप्यनुकीर्तनं भवति पुष्टिकरमेव ॥ १२ ॥
टीका-प्रागर्थतस्तीर्थकरैः प्रणीताः । तदनन्तरा गणधराः साक्षाच्छिष्या भगवताम्, तैश्व सूत्रप्रतिबन्धेन परिकथिताः । भूयस्तदनन्तैरर्गणधर शिष्यैस्तच्छिष्यैश्च पारम्पर्येणाख्याताः । भावाः ' इति जीवादयः पदार्था लक्षणविधानानुयोगद्वारप्रक्रमेण प्ररूपिताः । तेषां भावानाम्, बहुशः अनेकशः, पश्चात् कीर्तनम् अनुकीर्तनं मनोवाक्कायैर्बन्धमोक्षप्रक्रियानुग्रहणतया पुष्टिकरमेव भवति । पुष्टिरुपचयो ज्ञानदर्शनचारित्राणाम् । तदुपचयाच्च कर्मनिर्जरणम्, ततो मोक्ष इति नास्ति कश्चिद्दोषः ॥ १२ ॥
[ प्रथमोऽधिकारः
अर्थ — तीर्थंकरोंने जिन पदार्थोंको बतलाया है और उनके पश्चात् गणधर वगैरहने जिनका विवेचन किया है, उनका बार बार कथन करना भी उनकी पुष्टि ही करता है ।
भावार्थ —पहले तीर्थंकरोंने जीवादिक पदार्थोंका अर्थरूपसे कथन किया । उसके पश्चात् उनके साक्षात् शिष्य गणधरोंने उन्हें सूत्ररूपमें कहा । उसके पश्चात् गणधरोंके शिष्योंने तथा उनके शिष्यों के भी शिष्योंने परम्परासे लक्षण अनुयोगद्वार वगैरहके क्रमसे उनका कथन किया। उन पदार्थों का मन, वचन और कायके द्वारा अनेक बार कथन करना, बन्ध और मोक्षकी प्रक्रियाका अनुग्राहक होनेसे पुष्टिका ही करनेवाला है । अर्थात् यदि उन पदार्थोंका मनमें चिन्तन किया जाय, वचनसे उनका कथन किया जावे, और कायसे उनका आचरण किया जावे तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रकी वृद्धि ही होती है, और उनकी वृद्धि होनेसे कर्मोंकी निर्जरा होती है, और कर्मोंकी निर्जरा होनेसे मोक्ष होता है । अतः पूर्वाचार्योंके द्वारा वैराग्यके अनेक शास्त्रोंके रचे जानेपर भी इस 'प्रशमरति ' को बनाने में कोई दोष नहीं है ।
'पुनरुक्तदोषोऽपि न ढौकते, प्रकारान्तरेण वैराग्यभ्यासादारोग्यार्थिनो भैषजोप - योगवत्' इत्याह
तथा इसमें पुनरुक्त दोष भी नहीं है; क्योंकि आरोग्यके इच्छुक मनुष्यको ओषधिके सेवनकी तरह इसमें प्रकारान्तरसे वैराग्यके अभ्यास करनेका ही कथन किया है। यही बात कहते हैं:
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यद्वदुपयुक्तपूर्वमपि भेषजं सेव्यतेऽर्तिनाशाय ।
तद्वद् रागार्त्तिहरं बहुशोऽप्यनुयोज्यमर्थपदम् ॥ १३ ॥
टीका—लब्धप्रत्ययमुपयुक्तमौषधं प्रथमं पुनःपुनस्तदेवोपयुञ्जते । तदुपयोगाच्च अभ्यसतः
प्रतिदिनं व्याधेरुपशमप्रकर्षविशेषसमासादनं दृष्टम् । व्याधिकृतं दुःखम् अर्तिः - वेदना । 'उपयुक्तपूर्वमपि ' इत्यनेन लब्धप्रत्ययत्वमाचष्टे । तद्वत् तथा । रागार्तिहरम् - रागग्रहणं द्वेषादीन्
१ नास्ति पदमिदं प० प्रतौ ।