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१७८ ___रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [अष्टादशोऽधिकारः, क्षपकश्रेणी
टीका-शुक्लध्यानस्याद्यद्वयमवाप्य पृथक्त्ववितर्कसविचारमेकत्ववितर्कमविचारं च। किं करोति ? मोहमुन्मूलयति । कीदृशं मोहम् ? कर्माष्टकस्य प्रणेतारं नायकम् । संसारतरोर्मूलमाद्यं प्रथम बीजम् । समूलकाषं कषत्युन्मूलयतीति ॥ २५९ ॥
____ अर्थ-आदिके दो शुक्लध्यानोंको प्राप्त करके आठों कर्मों के नायक, संसारके कारग मोहनीय. कर्मको जड़से उखाड़ फेंकता है।
भावार्थ-आठों कर्मोंमें मोहनीयकर्म ही प्रधान है । वही संसाररूपी वृक्षका बीज है । मुनि पृथक्त्ववितर्कसविचार और एकत्ववितर्कअविचार नामक शुक्लध्यानके बलसे उस मोहनीयकर्मको जड़से नष्ट कर डालता है।
अथ केन प्रकारेण मोहोन्मूलनमित्याहमोहनीयकर्मके उन्मूलन करनेकी प्रक्रिया बतलाते हैं:- पूर्व करोत्यनन्तानुबन्धिनाम्नां क्षयं कषायाणाम् ।
मिथ्यात्वमोहगहनं क्षपयति सम्यक्त्वमिथ्यात्वम् ॥ २६० ॥
टीका-अनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालोभास्तान् प्रथमं क्षपयति । कीदृशं तत् ! मोहगहनं मोहो गहनो घनो यस्मिन् मिथ्यात्वे तन्मोहगहनम् । ततः सम्यग्मिथ्यात्वं क्षपयति ॥२६० ॥
___ अर्थ-सबसे पहले अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ नामकी कषायोंका क्षय करता है। उसके बाद भयंकर मिथ्यात्व मोहका क्षय करता है और इसके पश्चात् सम्यक्त्व-मिथ्यात्वका क्षय करता है।
भावार्थ-मोहनीयकर्मके दो मूल भेद हैं-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीयके तीन भेद हैं और चारित्रमोहनीयके पच्चीस । इनमेंसे दर्शनमोहनीयकर्म प्रबल है और इसके तीन भेदोंमें भी मिथ्यात्वकर्म बलवान है । उसके रहनेसे ही मोहनीयकर्म प्रबल रहता है। मोहनीयकर्मके इन अट्ठाईस भेदोंमेंसे सबसे पहले अनन्तानुबन्धी कषायोंका नाश करता है । उसके बाद क्रमशः मिथ्यात्व और सम्यमिथ्यात्वका नाश करता है।
सम्यक्त्वमोहनीयं क्षययत्यष्टावतः कषायांश्च ।
क्षपयति ततो नपुंसकवेदं स्त्रीवेदमथ तस्मात् ॥ २६१ ॥
टीका-ततः सम्यक्त्वं क्षपयति । ततोऽप्रत्याख्यानचतुष्कं प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्कं च क्षपयति । ततो नपुंसकवेदम् । पश्चात् स्त्रीवेदं पुरुषः क्षपक श्रेणिमारोहन् । यदा स्त्री समारोहति तदा स्त्रीवेदं पश्चात् क्षपयति । अथ नपुंसक आरोहति ततो नपुंसकवेदं पश्चात् क्षपयति ॥ २६१ ॥