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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [अष्टादशोऽधिकारः, क्षपकश्रेणी दोनों में ही जो समभाव रखता है, जिसकी दृष्टिमें घासके तिनके और बहुमूल्य मणि समान हैं, जो मिट्टीके ढेलेकी तरह सोनेकी भी इच्छा नहीं करता, जो अपनी आत्मामें ही लीन रहता है-बाह्य पदार्थोंसे जिसका कोई सम्बन्ध नहीं है, स्वाध्याय और ध्यानमें तत्पर रहता है, समस्त प्रमादोंको पासमें नहीं फटकने देता, परिणामों के निर्मल होनेके कारण जिसके मन, वचन और कायका व्यापार उत्तरोत्तर विशुद्ध होता जाता है, जिसका चारित्र विशुद्ध है, लेश्या विशुद्ध है, वह कल्याणमूर्ति साधु अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थानको प्राप्त करता है । इस गुणस्थानमें अपूर्व अर्थात् जो कभी प्राप्त नहीं हुए-ऐसे करण अर्थात् परिणाम होते हैं, इसलिए इसे अपूर्वकरण कहते हैं। यह अपूर्वकरण घातिकर्मोके एकदेशके क्षय होनेपर प्राप्त होता है । इसके प्राप्त होनेसे अनेक ऋद्धियोंकी प्राप्ति होती है । सारांश यह है किधर्मध्यानोंको करनेसे साधुको अनेक गुणोंकी प्राप्ति होनेके साथ ही साथ उन गुणों की प्राप्ति होती है, जो गुण उसे अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थानको प्राप्त कराने में समर्थ होते हैं ॥ २५०-२५१-२५२-२५३-२५४-२५५॥
सातद्धिरसेष्वगुरुः सम्प्राप्य विभूतिमसुलभामन्यैः ।
सक्तः प्रशमरतिसुखे न भजति तस्यां मुनिः संगम् ॥ २५६ ॥
टीका-माते ऋद्धौ रसे च अगुरुकृतादरः। सम्प्राण्य विभूतिमाकाशगमनादिकाम् । अन्यैरसुलभामप्राप्ताम् । ताहरुचारित्रैसक्तोऽभिरतःप्रशमरतिसुखे । न भजति न करोति । तस्यां विभूतौ मुनिः संगं स्नेहं नोपजीवति लन्धीरित्यर्थः ॥ २५६ ॥
अर्थ-सात ऋद्धि और रसमें आदर न रखनेवाला मुनि, दूसरोंको प्राप्त न हो सकनेवाली ऋद्धिको प्राप्त करके वैराग्यके प्रेमसे उत्पन्न होनेवाले सुखमें आसक्त होता हुआ उस ऋद्धिसे ममत्व नहीं करता है।
भावार्थ-धर्मध्यानके करनेसे मुनिको अनेक ऋद्धियोंकी प्राप्ति होती है । किन्तु वह मुनि सांसारिक-सुख, ऋद्धि और रसनेन्द्रियके विषयमें आदरभाव नहीं रखता और रात-दिन वैराग्यजन्य सुखमें ही निमग्न रहता है । अतः उन दुर्लभ ऋद्धियोंको पाकर भी उसे उनसे जरा भी मोह नहीं होता है।
सर्वतिशायिनां यतीनामृद्धिर्भवति परमातिशयप्राप्तत्वादिति दर्शयतिमुनियोंको जो ऋद्धियाँ प्राप्त होती हैं वह सब ऋद्धियोंसे उत्कृष्ट होती हैं, यह बतलाते हैं:
या सर्वसुरवरद्धिविस्मयनीयापि सानगारद्धेः ।
नाति सहस्रभागं कोटि शतसहस्रगुणितामपि ॥ २५७ ॥
टीका-सर्वसुराणां ये बराः कल्पाधिपतय इन्द्राः शक्रादयः कल्पातीताश्च । तेषामृद्धिविभूतिर्या सा विस्मयकारिणी भवति प्राणिनाम । अतो विस्मयनीयापि सती सा विभूतिरनगारः साधुजनसमृद्धेनापति सहस्रभागम् । कोटिशतसहस्रगुणितापि सा सुरवरदि कोटिलक्षगुणितापि नाति । सहस्त्रांशेनाप्यनगारद्धेर्न तुल्यतामेतीत्यर्थः ॥ २५७ ॥