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________________ कारिका २३०.२३१-२३२-३३३] प्रशमरतिप्रकरणम् । भावार्थ-सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके प्राप्त होनेपर भी किसीके चारित्र होता है और किसीके नहीं होता । जिस प्रकार चतुर्थ गुणस्थानमें सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके होनेपर भी चारित्र नहीं होता; किन्तु छठे आदि गुणस्थानोंमें होता है। परन्तु जिसके चारित्र होता है, उसके सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान नियमसे होते हैं। क्योंकि उनके विना चारित्र हो ही नहीं सकता। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके होनेपर ही चारित्र होता है । अतः चारित्रकी प्राप्ति उन दोनोंकी अविनाभावी है। कथं पुनः सम्यक्त्वादिसाधनमाराध्यमविकलमनुष्टेयमित्याहसम्यक्त्व वगैरहका आराधान किस प्रकार करना चाहिए ? यह बतलाते हैं: धर्मावश्यकयोगेषु भावितात्मा प्रमादपरिवर्जी । सम्यक्त्वज्ञानचारित्राणामाराधको भवति ॥ २३२ ॥ टीका-धर्मे दशविधे क्षमादिके आवश्यकेषु । तानि चावश्यकानि प्रतिक्रमणालोचनस्वाध्यायप्रत्युपेक्षणप्रमार्जननिर्गमप्रवेशादीन्यवश्यकरणीयानि तेषु । भावितात्मा श्राद्धः समस्तप्रमादपरिहारी सम्यक्त्वादिसाधनानामाराधको भवति परिसमापयिता भवतीत्यर्थः ॥ २३२ ॥ अर्थः-क्षमा आदि धर्मों में और आवश्यकक्रियाओंमें श्रद्धाशील तथा प्रमाद न करनेवाला आत्मा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका आराधक होता है। भावार्थः-जो दश प्रकारके धर्मों में और प्रतिक्रमण, आलोचन, स्वाध्याय, प्रत्युपेक्षण, प्रमार्जन और आना-जाना वगैरह आवश्यकक्रियाओंमें श्रद्धा रखता है तथा आलस्य नहीं करता है, वह सम्यग्दर्शन बादिकी आसधना कर सकता है। आराधनाश्च तेषां तिस्रस्तु जघन्यमध्यमोत्कृष्टाः । जन्मभिरष्टव्येकैः सिध्यन्त्याराधकास्तासाम् ॥ २३३ ।। टीका-तेषां सम्यक्त्वादीनामाराधनास्तिस्रो जघन्यमध्यमोत्कृष्टादिभेदेन संभवन्ति । तत्र जघन्याष्टभिर्जन्मभिर्देवमनुष्येषूपजातस्य भवति, अष्टाभिस्तेषां भवरन्तं याति सिद्धिं प्राप्नोतीत्यर्थः । मध्यमा त्वाराधना जन्मत्रयेण मनुष्यजन्मपूर्षिका । उत्कृष्टा त्वाराधना एकेनैव भवेन मरुदेव्या इव भवति । एवमाराधकास्तान्याराधयन्तीति ॥ २३३ ॥ अर्थ-उन सम्यक्त्व वगैरहकी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे तीन प्रकारकी आराधना होती है । और उनके आराधक आठ तीन और एक जन्ममें मोक्षको प्राप्त करते हैं। भावार्थः-उनकी आराधना तीन प्रकारकी होती है-जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट । जघन्य आराधनाके आराधक जीव आठ भवमें मोक्षको प्राप्त करते हैं। मध्यम आराधनाके तीन भवमें मोक्ष प्राप्त करते हैं, और उत्कृष्ट आराधनाके आराधक जीव उसी भवसे मोक्ष-लाभ करते हैं।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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