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________________ कारिका २२८-२२९ । प्रशमरतिप्रकरणम् इत्येतत् पञ्चविधं चारित्रं मोक्षसाधनं प्रवरम् । अनेकांनुयोगनयप्रमाणमार्गः समनुगम्यम् ॥ २२९ ॥ टीका–पञ्चविधं सामायिकादियथाख्यातपर्यन्तमष्टविधकर्मचयरिक्तीकरणाच्चरित्रम् । मोक्षसाधनं सम्यग्ज्ञानपूर्वकं क्रियानुष्ठानम् । प्रवरं प्रधानम् । अनेकानुयोगद्वारमार्गेण, अनेकेन च नयमार्गेण नैगमादिना, तथा प्रमाणमार्गेण प्रत्यक्षपरोक्षगोचरेण । समनुगम्यं समधिगम्यं ज्ञेयमित्यर्थः ॥ २२९ ॥ ___ अर्थ-पहला सामायिक, दूसरा छेदोपस्थापना, तीसरा परिहारविशुद्धि, चौथा सूक्ष्मसम्पराय और पाँचवाँ यथाख्यात ये चारित्रके पाँच भेद हैं । यह चारित्र मोक्षका प्रधान कारण हैं । अनेक अनुयोगद्वारोंसे, नयोंसे और प्रमाणोंसे उसे अच्छी तरह जानना चाहिए। भावार्थ-राग और द्वेषसे रहित परिपामको सम कहते है, उसकी प्राप्तिको 'समाय' कहते हैं । ' समाय ' अर्थात् साम्यभावकी प्राप्ति ही जिसका प्रयोजन है, उसे सामायिक कहते हैं। पहले और अन्तिम तीर्थकरको सामायिकचारित्र कुछ समय तक रहता है और मध्यके तीर्थङ्करोंके जीवनपर्यन्त रहता है। पूर्व पर्यायका छेद करके उत्तर पर्यायके धारण करनेको छेदोपस्थापनचारित्र कहते हैं। यह चारित्र पहले और अन्तिम तीर्थकरके तीर्थमें ही होता है। आशय यह है कि दीक्षा धारण करते समय सामायिकसंयम ही, धारण किया जाता है। बादमें उसमें दूषण लगनेपर छेदोपस्थापनचारित्र धारण करना होता है । यह दूषण पहले और अन्तिम तीर्थंकरोंके समयमें ही लगता है। अतः उनके तीर्थमें पाँचों चारित्रोंकी प्रवृत्ति रहती है। किन्तु मध्यके बाईस तीर्थंकरोंके तीर्थमें सामायिकमें दूषण लगनेका प्रसङ्ग उपस्थित नहीं होता । अतः उनके तीर्थमें चार ही संयमोंकी प्रवृत्ति रहती है। आचाम्लके सिवा शेष आहार भी त्याग कर देनेसे आत्मामें जो विशुद्धि उत्पन्न होती है, उसे परिहारविशुद्धिचारित्र कहते है। नौवें पूर्वको तीसरी आचार वस्तुके पाठी जो साधु गच्छसे निकलकर पारिहारिक कल्पमें स्थित होते हैं और ग्रीष्म, शिशिर तथा वर्षा ऋतुमें एकसे लेकर पाँचतक उपवास करते हैं । अर्थात् ग्रीष्म ऋतुमें जघन्यसे एक, मध्यम दो और उत्कृष्ट तीन उपवास, शिशिर ऋतुमें जघन्यसे दो, मध्यम तीन और उत्कृष्टसे चार उपवास तथा वर्षा ऋतुमें जघन्यसे तीन, मध्यमसे चार और उत्कृष्टसे पाँच उपवास करते हैं। पारणाके दिन आचाम्ल भोजन करते हैं। सम्परायकषायको कहते हैं । जिसके सूक्ष्म लोभकषाय बाकी रह जाती है, उस दशम गुणस्थानवी जीवके सूक्ष्मसम्परायचारित्र होता हैं । ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवर्ती उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय मुनिके यथाख्यातचारित्र होता है । भगवान्ने जिस प्रकारसे कहा है उसी प्रकारसे पूर्ण चारित्रको यथाख्यातचारित्र कहते हैं। यह चारित्र अकषायोंके होता हैं। इस प्रकार चारित्रके पाँच भेद हैं । यह चारित्र आठ प्रकारके कर्मोंके समूइको नष्ट कर डालता है, अतः मोक्षके १-अनेकैरनुयोग-ब०। प्र०२१
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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