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________________ १५८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [चतुर्दशोऽधिकारः, सम्यग्ज्ञानम् भवति । प्रत्यक्षं पुनरवध्यादित्रयम् । मिथ्यादर्शनपरिग्रहान्मतिश्नुतावधयो विपर्ययश्चाज्ञानमपि भवतीति ॥ २२५॥ अर्थ-उनमेंसे परोक्षके दो भेद जानने चाहिए-एक श्रुत और दूसरा आमिनिबोधिक । तथा अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञानको प्रत्यक्ष जानना चाहिए । भावार्थ-आगमिक ज्ञानको श्रुत कहते हैं । आभिनिबोधिक और मतिका एक ही अर्थ है । पहले अर्थावग्रह आदिरूप मतिज्ञान होता है । उसके बाद अनेक प्रकारका श्रुतज्ञान होता है । अवधि वगैरह तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं। मिथ्यात्वके साथ रहनेसे मति, श्रुत और अवधिज्ञान मिथ्याज्ञान भी होते हैं। अर्थात् ये तीनों ज्ञान सच्चे भी होते हैं और मिथ्या भी होते हैं । यदि सम्यक्त्वके साथ हों तो सचे होते हैं और यदि मिथ्यात्वके साथ हों तो मिथ्या होते हैं। एषामुत्तरभेदविषयादिभिर्भवति' विस्तराधिगमः । ऐकादीन्येकस्मिन भाज्यानि वाचतुर्थ्य इति ॥ २२६ ॥ टीका-एषां मत्यादिज्ञानानामुत्तरभेदविषयादिभिर्मवति विस्तराधिगमः । तत्रे न्द्रियानिन्द्रियभेदाद्विविधं मतिज्ञानम् । अवग्रहादिभेदाच्चतुर्विधम् । वहादिभेदादनेकधा । श्रुतमप्यङ्गबाह्याङ्गप्रविष्टभेदाद्वेधा । अङ्गबाह्यमनेकप्रकारम् । आवश्यकाद्यङ्गप्रविष्टमप्याचारादि द्वादशविधम् । तत्र परोक्षमसर्वद्रव्यविषयम् । अवधिर्जघन्यमध्यमोत्कृष्टादिभेदेनानेकधा रूपिद्रव्यनिबन्धनः। मनःपर्यायज्ञानमषि ऋजुविपुलमत्यादिभेदमवधिज्ञानविषयीकृतद्रव्यानन्तभाग निबन्धनं विशुद्धतरं चेति । एवं विस्तराधिगमः । आदिग्रहणात् क्षेत्रकालविभागोऽपि दृष्टव्यः । अथैतानि पञ्च ज्ञानान्येकस्मिन्नात्मनि युगयत् कियन्ति भवन्तीत्याह-एकादीनीत्यादि । एक मतिज्ञानं जघन्यतः श्रुतज्ञानमक्षरात्मकं सर्वत्र नै संभवतीत्येवमुक्तमेकं मतिज्ञानमिति । अन्यथा भावश्रुतं सर्वजीवानामागमेऽभिहितम् । तथा कदाचिन्मतिश्रुते द्वे भवतः । कदाचित्रीण मतिश्रुतावधिज्ञानानि । कदाचिन्मतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानानीति । न जातुचित् पञ्चापि युगपत् संभवन्तीति ॥ २२६ ॥ ___अर्थ-इन ज्ञानों के उत्तरभेद और विषय वगैरहसे इनका विस्तारसे ज्ञान होता है । एक जीव में एकसे लेकर चार ज्ञान तक विभाग करना चाहिए। भावार्थ-भेद-प्रमेद और विषय आदिसे ज्ञानोंको खूब विस्तारके साथ जाना जा सकता है । जैसे इन्द्रिय और अनिन्द्रियके भेदसे मतिज्ञान दो प्रकारका है । अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाके भेदसे चार प्रकारका है । ये चारों ज्ञान, पाँचों इन्द्रियाँ और मनसे उत्पन्न होते हैं । अतः मतिज्ञान ४४६२४ प्रकारका है । बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृन, अनुक्त, ध्रुव, एक, एकविध, चिर, निःसृत, उक्त और १-दिभिर्विस्तराधिगमो भवति-ब०। २-'एकादीन्येकस्मिन् ' इत्यारभ्य 'विस्तराधिगमो मवति' इति पर्यन्तः पाठ-ब० पुस्तके नास्ति । ३-नास्तीदं-ब० पुस्तके ।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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