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________________ कारिका २१४-२१५] प्रशमरतिप्रकरणम् १५१ अनन्तप्रदेशी है और पुद्गल भी अनन्तप्रदेशी होता है । अतः वे पाँचों अस्तिकाय कहे जाते हैं। जीवके सिवाय शेष धर्मादि द्रव्य कर्तृत्वपर्यायसे रहित हैं। क्योंकि शुभ और अशुभ कर्मोंका कर्ता केवल जीवद्रव्य ही होता है। कर्मादीनि द्रव्याणि कार्यमिति निर्दिशनाहद्रव्योंका कार्य बतलाते हैं: धर्मो गतिस्थितिमतां द्रव्याणां गत्युपग्रहविधाता । स्थित्युपकृच्चाधर्मोऽवकाशदानोपकृद्गगनम् ॥ २१५॥ टीका-धर्मद्रव्यं गतिमतां द्रव्याणां स्वयमेव गतिपरिणतानामुपग्रहे वर्तते जीवपुद्गला नाम्, न पुनरगच्छज्जीवद्रव्यं पुद्गलद्रव्यं वा बलान्नयति धर्मः । किंतु स्वयमेव गतिपरिणतमुपगृह्यते धर्मद्रव्येण । मत्स्यस्य गच्छतो जलद्रव्यमिवोपग्राहकम् । यथा वा व्योमद्रव्य स्वयमेव द्रव्यस्यावगाहमानस्य कारणं भवति, न पुनरनवगाहमानं बलादवगाढं कारयति । यथा च कृषीबलानां कृण्यारम्भं स्वयमेव कर्तुमुद्यतानामपेक्षाकारणं वर्ष भवति, न च तानकुर्वतः कृषी. बलान् बलात् कृषि कारयति वर्षा । यथा वा गर्जितध्वनिसमाकर्णनाद् बलाकानां गर्माधानप्रसवौ भवतः, न च तामप्रसवती बलाद्गर्जितशब्दः प्रसादयति । यथा वा पुरुषः प्रतिबोधनिमित्तं पापाद्विरमति, न चाविरमन्तं पुमांस बलात्प्रतिबोधो विरमयतीति । एवं गतिपरिणाम भाजां पुद्गलजीवानामपेक्षाकारणं धर्मद्रव्यम् । तथा स्थितिमतां द्रव्याणां स्थितेरपेक्षाकारणम. धर्मद्रव्यं स्वयमेव तिष्ठताम्, न चातिष्ठद्रव्यं बलादधर्मः स्थापयति । एवं स्थितिमतां द्रव्याणा स्थित्युपकारी भवत्यधर्मः । गगनं तु जीवषुद्गलानामवगाहमानानामवकाशदानेन व्याप्रियते ॥११५॥ अर्थ-धर्मद्रव्य चलते हुए द्रव्योंके चलने में सहायता करता है । अधर्मद्रव्य ठहरे हुए द्रव्योंके ठहरने में सहायक है और आकाशद्रव्य सभी द्रव्योंको अवकाश देता है । ___ भावार्थ-धर्मद्रव्य स्वयं ही चलते हुए जीव और पुद्गलोंको चलनेमें सहायता करता है। किन्तु न चलते हुए जीवद्रव्य और पुद्गलद्रव्यको जबर्दस्ती नहीं चलाता है । जिस प्रकार जल मछलीके चलनेमें सहायक है, जिस प्रकार आकाशद्रव्य स्वयं ही अवकाशके इच्छुक द्रव्यको अवकाश. दान करता है-बलपूर्वक किसीको अवकाश नहीं करता, जिस प्रकार स्वयं ही खेतीमें लगे हुए किसानोंको वर्षा सहायक होती है--किन्तु खेती न करनेवाले किसानोंको बलपूर्वक खेतीमें नहीं लगाती है, जिस प्रकार मेघकी गर्जनाको सुनकर मादा बगुलाओंके गर्भाधान अथवा प्रसव होता हैकिन्तु यदि बगुला स्वयं ही प्रसव न करे तो मेघकी गर्जना उसे बरपूर्वक प्रसव नहीं कराती, अथवा जिस प्रकार धर्मोपदेशके निमित्तसे मनुष्य पापका त्याग कर देता है किन्तु यदि पुरुष पापसे विरक्त न हो तो १-" संति जदो तेणेदे अस्थीति भणंति जिणवरा जह्मा । काया हव बहुदेसा तमा काया य अस्थिकाया य ॥ २५॥"-बृहद्र्यसंग्रह ।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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