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रायचन्द्रजनशास्त्रमालायाम् [ एकादशाऽधिकारः, जीवादिनवतत्त्वानि जीवा मुक्ताः संसारिणश्च संसारिणस्त्वनेकविधाः।
लक्षणतो विज्ञेया द्वित्रिचतुःपञ्चषड्भेदाः ॥ १९० ॥
टीका-द्विप्रकारा जीवाः। मुक्ताः सकलकर्मक्षयमाज एकरूपाः। संसारिणस्त्वनेकविधाश्चतुर्गतिप्रवृत्ता ये ते चानेकभेदाः-नारकास्तिर्यञ्चो मनुष्या देवाः। पुना रत्नप्रभापृथिवीनारका इत्यादिभेदाः। तिर्यञ्चोऽप्येकद्वित्रितुःपञ्चेन्द्रियभेदाः । पुनरेकेन्द्रियाः पृथिव्यादिभेदाः । द्वीन्द्रियाः शंखशुक्तिकादयः । त्रीन्द्रियाः पिपीलिकादयः । चतुरिन्द्रिया मक्षिकाभ्रमरपतङ्गादयः । पञ्चेन्द्रिया गोमहिष्यजाविकादयो गर्भव्युत्क्रान्तादयः संमूर्च्छजाश्च । मनुष्या आर्यम्लेच्छादिभेदाः गर्भजाः संमूर्च्छजाश्चेति । देवा भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकाः । भवनपतयो दशासुरादयः। व्यन्तराः किन्नरादयोऽष्टभेदाः ज्योतिष्का पञ्चप्रकाराः सूर्यादयः। वैमानिका सौधर्मवास्यादय इति ॥ १९०॥ |
___ अर्थ-जीव दो प्रकारके होते हैं-मुक्तजीव और संसारीजीव । संसारीजीव दो, तीन। चार, पाँच और छह भेदरूप अनेक प्रकारके होते हैं । उन्हें अपने-अपने चिन्होंसे जान लेना चाहिए।
भावार्थ-जीव दो प्रकारके होते हैं । उनमेंसे मुक्तजीव समस्त कर्मोंसे मुक्त होनेके कारण सब एकसे ही होते हैं । किन्तु संसारीजीव अनेक प्रकारके होते हैं। सबसे पहले चार गतियोंकी अपेक्षासे चार भेद हैं--नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव । फिर रत्नप्रभा पृथिवी वगैरहकी अपेक्षासे नारकियोंके अनेक भेद हैं। तिर्यञ्चोंके एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय आदि मेद हैं ।
एकेन्द्रियोंके पृथिवी आदि भेद हैं। दोइन्द्रियों के शंख-सीप वगैरह भेद हैं । तेइन्द्रियों के चींटी आदि भेद हैं। चौइंद्रियोंके मक्खी, भोंरा, पतङ्ग वगैरह भेद हैं । पञ्चन्द्रियके गाय, भैंस, बकरा, मेंढ़ा वगैरह तथा गर्भज और समूर्छन वगैरह भेद हैं । मनुष्योंके आर्य, म्लेच्छ, गर्भज, संमूर्च्छन आदि मेद हैं । देव, भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक होते हैं । भवनवासियोंके असुरकुमार वगैरह दस भेद हैं। व्यन्तरों के किन्नर वगैरह आठ भेद हैं । ज्योतिषकोंके सूर्य वगैरह पाँच भेद हैं । और वैमानिकोंके सौधर्मवासी वगैरह भेद हैं।
प्रकरणकारस्त्वनेकविधत्वमन्यथा दर्शयतिग्रन्थकार संसारीजीवोंके दो-तीन वगैरह भेदोंको कहते हैं:द्विविधाश्चराचराख्यास्त्रिविधाः स्त्रीपुंनपुंसका ज्ञेयाः।
नारकतिर्यग्मानुषदेवाश्चतुर्विधाः प्रोक्ताः ॥१९१ ॥
टीका-चरा जंगमास्तेजोवायुद्वीन्द्रियादयः अचराः स्थावराः पृथिव्यादयः । त्रिविधाः स्त्रियः पुमांसो नपुंसकाः । नारकादिभेदेन चतुर्विधाः । शासनेऽभिहिताः ॥ १९१ ।।
१-धा लक्षणतो विज्ञया; ब.।