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________________ १२४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [नवमोऽधिकारः, धर्मः अर्थ-अध्यात्मज्ञानी निश्चयसे ममत्वको परिग्रह कहते हैं। अतः जो वैराग्यका इच्छुक है, उसका आकिश्चन्य परमधर्म है। ___ भावार्थ-जो यह जानते हैं कि 'आत्मा कैसे बँधता है और कैसे छूटता है ।' उन आत्मज्ञानियोंको अध्यात्मज्ञानी कहते हैं । अध्यात्मज्ञानी निश्चयनयसे आत्माके मोहपरिणामको ही परिग्रह कहते हैं। क्योंकि उसके होनेसे ही मनुष्य बाम परिग्रहके संचयमें प्रवृत्त होता है । अतः जो वैराग्यके अभिलाषी हैं, उन्हें शरीरादिकसे भी ममत्व नहीं करना चाहिए । यही आकिश्चन्यधर्म है। धर्मानुष्ठाने फलं दर्शयतिधर्मका फल बतलाते हैं: दशविधधर्मानुष्ठायिनः सदा रागद्वेषमोहानाम् । दृढरूढघनानामपि भवत्युपशमोऽल्पकालेन ॥ १७९ ॥ टीका-दशप्रकारः क्षमादिधर्मः, तदनुष्ठायिनस्तदासेविनः। सदैवानवरतम् । रागद्वेष । मोहानामुपशमो भवति । एते च संसारभ्रमणस्य मूलं दृढं रूढं घनाश्च सुष्ठ दृढं रूढा जाता घना बहुलाः प्रभूतकर्माशाः । अथवा यथासंख्यं दृढो रागः, रूढो द्वेषः, धनो मोहः । एवं विधानामपि खल्पैनव कालेन भवत्युपशमः क्षयो वा ॥ १७९ ॥ अर्थ-जो दस प्रकारके धर्मका सदा पालन करते हैं । उनके चिरकालसे संचित दुर्भध राग, द्वेष और मोहका थोड़े ही समयमें उपशम हो जाता है । भावार्थ-संसारके मूलकारण राग, द्वेष और मोह हैं । चिरकालसे संचित होते-होते वे आत्मामें स्थिरसे हो जाते हैं, और उनका भेदन करना बड़ा कठिन होता है। किन्तु जो उक्त दस धर्मोका सदा सेवन करते हैं, उनके दुर्भेद्य राग-द्वेष और मोह क्षणभरमें ही शान्त हो जाते हैं। तथा ममकाराहंकारत्यागादतिदुर्जयोद्धतप्रबलान् । हन्ति परीषहगौरवकषायदण्डेन्द्रियव्यूहान् ॥ १८० ॥ टीका-ममकारो माया, लोभश्च । अहंकारो मानः क्रोधश्च । तयोमर्मकारांहंकारयोस्त्यागः । किं भवतीत्याह-अतिदुर्जयोद्धतप्रबलान् अतीव दुर्जयानुद्धतांश्च सावष्टम्भान् प्रकृष्टबलांश्च । हन्ति विनाशयति । परीषहगौरवकशायदण्डेन्द्रियव्यूहान् परीषहाः क्षुत्पिपासादयः, गौरवं गृद्धयादिः, कषायाः क्रोधादयः, दण्डा मनोवाक्कायाख्याः, इन्द्रियाणि, एषां व्यूहाः समूहाः चक्रव्यूहगरुडव्यूहादिवद् व्यूहा ग्राह्याः । तान् हन्ति विजयतेऽ भिभवतीत्यर्थः ॥ १८॥ १-णि-स्पर्शनादीनि, फ०प०।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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