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________________ कारिका १६३-१६४ ] प्रशमरतिप्रकरणम् अर्थ-सैकड़ों भवोंमें उस दुर्लभ सम्यग्ज्ञानको प्राप्त करके भी अज्ञानसे, रागसे, कुमार्गके देख लेनेसे और सांसारिक सुखके अधीन होनेसे चारित्रका प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ है। भावार्थ-सैकड़ों भव धारण करनेके बाद यदि किसी तरह सम्यग्ज्ञानका लाम हो भी गया तो देशचारित्र और सकलचारित्रका पाना बड़ा कठिन हैं, क्योंकि मनुष्यके पीछे मोह वगैरह लगे हुए हैं। मोहके वशीभूत हुआ मनुष्य सोचता है कि अमुक अमुक काम करके दीक्षा लूँगा। अथवा श्रावकके व्रत लूँगा। क्योंकि मैं सकल त्याग नहीं कर सकता हूँ। मोहके उदयसे वह यह नहीं जानता है कि यह जीवन क्षणभंगुर है, यह अचानक ही नष्ट होजाता है और यह किसीकी प्रतीक्षा नहीं करता है। तथा रागके कारण भी चारित्र धारण नहीं कर पाता; क्योंकि पत्नी-पुत्र वगैरहमें अनुरक्त होनेके कारण वह घर नहीं छोड़ सकता। इसके सिवाय अनेक कुमार्गीके मोहजालमें पड़कर भी वह सुमार्गको ग्रहण नहीं कर पाता । इसलिए भी चारित्रका लाभ उसे नहीं हो पाता । तथा लोभ कषायके वशमें होकर वह धनसम्पदाको छोड़नेमें हिचकता है । रसना इन्द्रियके वशमें होनेके कारण इष्ट रसोंको नहीं छोड़ सकता। सुखमें आसक्त होनेके कारण ऋतुके अनुकूल आहार-विहार, शय्या, चन्दन वगैरहका लेप, धूप, माला, स्त्री वगैरहको छोड़नेमें असमर्थ होता है । अतः सम्यग्ज्ञानका लाभ होनेपर भी सकलचारित्रका पाना दुर्लभ है। तत्प्राप्य विरतिरत्नं विरागमार्गविजयो दुरधिगम्यः । इन्द्रियकषायगौरवपरीषहसपत्नविधुरेण ॥ १६४ ॥ टीका-सकलं विरतिरत्नं प्राप्य यदुक्तं पूर्व दुर्लभं तदवाप्य सर्वविरतिरत्नम् । विरागमार्गविजयो दुरधिगम्यः । विरागस्य मार्गो रागप्रहाणमार्गः यथोक्तलक्षणः, शास्त्रे " हिंसादिष्विहामुत्र चापायावद्यदर्शनम्", " दुःखमेव वा” इत्यादि । एवंलक्षणकस्य विरागमार्गस्य विजयः परिचयोऽभ्यसनम् । अधिगम्यते प्राप्यतेऽधिगम्यः, दुःखेनाधिगम्यो दुःनाप्य इत्यर्थः । कस्मात् पुनदुःखेनाधिगम्यत इत्याह-इन्द्रियाणि परिपन्थानि विरागमार्गस्य विघ्नकरणानि । कषायाः क्रोधादयः, सपत्नाः शत्रवः परिपन्थिनः । गौरवमुक्तलक्षणं त्रिधा-ऋद्धिरससातारव्यम् । क्षुत्पिपासादयः परिषहाः, ते चानन्यतुल्याः सपत्नाः। एभिरिन्द्रियादिभिः सपत्नैर्विधुरो विसंस्थुल आकुलीकृतः न वैराग्यमार्गमभ्यसितुं समर्थो भवति । इन्द्रियादिसपत्नविधुरेण न शक्यते विरागमार्गविजयः कर्तुमिति ॥ १६४ ॥ अर्थ-उस सकलचारित्ररूप रत्नको प्राप्त करके, इन्द्रिय, कषाय, विषय-सुखमें आदरभाव और परीषहरूप शत्रुओंके द्वारा व्याकुल हुए मनुष्यके लिए वैराग्य-मार्गको जीतना अत्यन्त कठिन है। भावार्थ-इन्द्रियाँ, क्रोधादि कषाय, धन-सम्पदा, रस और सुखमें आदरभाव और भूख-प्यास की बाधा, ये सभी वैराग्य मार्गके शत्रु हैं । सकलचारित्र धारण करके भी जो इन्हें नहीं जीत सका, वह वैराग्य-मार्गका अभ्यास नहीं कर सकता । अतः वैराग्यका मार्ग सकलचारित्रसे भी दुष्कर है। १-सम्पन्न-ब०।२- कारणानि-फ०प०!
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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