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________________ ११० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ अष्टमोऽधिकारः, भावना अष्टम, दशम, द्वादश आदि तपोंके द्वारा वे नीरस होजाते हैं । और नीरस होजाने से बिना फल दिये ही वे कर्म मसले गये कुसुंभके फूलकी तरह आत्मासे झड़ जाते हैं । लोकभावनामधिकृत्याहलोकभावनाको कहते हैं: लोकस्याधस्तिर्यक्त्वं चिन्तयेदुर्ध्वमपि च बाहल्यम् । सर्वत्र जन्ममरणे रूपिद्रव्योपयोगांश्च ॥ १६० ॥ टीका - जीवाजीवाधारक्षेत्रं लोकः, तस्याधस्तिर्यगूर्ध्वञ्च चिन्तयेत्। बाहल्यं विस्तरम् । अधः सप्तरज्जुप्रमाणो विस्तीर्णतया लोकः । तिर्यग् रज्जुप्रमाणः । ऊध्वं ब्रह्मलोके पचरज्जुप्रमाणः । पर्यन्ते रज्जुप्रमाण इति । अधः (च) शब्दादूर्ध्वाध चतुर्दशरज्जुप्रमाणः । सर्वत्र लोके जन्ममरणे समनुभूते व्यापकमधिकरणम् । नास्ति तिलतुषप्रमितोऽपि लोकाकाशदेशो यत्र न जातं न मृतं वा मयेति । रूपिद्रव्योपयोगांश्चेति रूपीणि यानि द्रव्याणि परमाणुप्रभृतीन्यनन्तानन्तस्कन्धपर्यवसानानि तेषां य उपयोगः परिभोगो मनोवाक्कायाहारोच्छ्रासनिश्वासादिरूपेण सर्वेषां कृतोऽनादौ संपर्यटता, चास्मि न तृप्त इत्यनुक्षणमनुचिन्तयेदिति ॥ १६० ॥ अर्थ – नीचे, तिरछे और ऊपर लोकके विस्तारका विचार करना चाहिए तथा यह भी विचार करना चाहिए कि लोक में सर्वत्र ही मैं जन्मा और मरा हूँ और सभी रूपी द्रव्यों का मैंने उपभोग किया है। भावार्थ-जीवों और अजीवोंके आधारभूत क्षेत्रको लोक कहते हैं। उसके तीन भाग हैंअधोलोक, मध्यलोक या तिर्यग्लोक और ऊर्ध्वलोक । अधोलोकका विस्तार सात राजू है । तिर्यग्लोकका एक राजू है और ऊर्ध्वलोकका विस्तार ब्रह्मलोक के समीपमें पाँच राजू है और अन्तमें एक राजू है । 'च' शब्द से अधोलोकसे लेकर ऊर्ध्वलोक तक सम्पूर्ण लोककी ऊँचाई चौदह राजू है । सभी लोकमें मैंने जन्म तथा मरणका अनुभव किया है। लोकाकाशमें तिल बराबर भी कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ मैंने जन्म न लिया हो और मैं मरा न होऊँ । परमाणुसे लेकर अनन्तानन्तप्रदेशी स्कन्ध तक जितने पुद्गल द्रव्य हैं, कालसे भ्रमण करते हुए मैंने मन, वचन, काय, आहार और श्वास उच्छास वगैरह के द्वारा उन सभीको भोग डाला है, तो भी मेरी तृप्ति नहीं हुई है। इस प्रकार प्रतिसमय विचार करते रहना चाहिए । स्वाख्यातधर्मभावनामधिकृत्याह स्वाख्यातधर्मभावनाको कहते हैं : धर्मोऽयं स्वाख्यातो जगद्धितार्थे जिनैर्जितारिगणैः । येsa रतास्ते संसारसागरं लीलयोत्तीर्णाः ॥ १६१ ॥ १- यत्रर- ५० :
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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