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________________ कारिका १५४-१२५-१५६] प्रशमरतिप्रकरणम् आधुत्तरकारणशुचित्वाच । आदिकारणं शुक्रशोणितम् । उत्तरकारणं जनन्याभावहृतस्य ( भ्यवहृतस्य ) आहारस्य रसहरण्योपनीतस्य रसस्यास्वादनमत्यन्ताशुचि । एवमायुत्तरकारणयोरशुचित्वादशुचिर्देह इति प्रतिक्षणमनुचिन्तनीयम् । स्थाने स्थाने इति शिरःकपालाद्यवयवेषु चरणान्तेषु त्वगाच्छादितासृग्मांसमेदोमजास्थिस्नायुजालसन्तानबन्धेषु न क्वचिच्छचिगन्धोऽस्तीत्यशुचिगन्ध एव विजृभते इति ॥ १५५॥ ___ अर्थ-इस शरीरमें पवित्र पदार्थों को भी अपवित्र कर देनेकी शक्ति है, इसके आदिकारण तथा उत्तरकारण भी अपवित्र हैं । अतः प्रत्येक स्थानपर उसकी अपवित्रताका विचार करना चाहिए। भावार्थ-कपूर, चन्दन, अगुरु, केसर वगैरह मुगन्धित द्रव्य शरीरमें लगानेसे दुर्गन्धित हो जाते हैं । तथा शरीरका आदिकारण रज और वीर्य है; क्योंकि प्रारंभमें उन्हींके मिलनेसे शरीर बनना शुरू होता है। बादको माता जो भोजन करती है, उस भोजनका जो रस हरेणीमें आता है उससे शरीर बनता है। अतः शरीरका आरम्भिक कारण भी गन्दा है, और उत्तरकारण भी गन्दा है। और उनके गन्दे होनेसे शरीर भी गन्दा है । इन कारणोंसे सिरसे लेकर पैरतक शरीरके प्रत्येक अङ्गमें अशुचित्व-गन्दगीका विचार करना चाहिए । अर्थातू यह सोचना चाहिए कि यह शरीर चामसे मढ़ा हुआ है। इसके अन्दर खून, माँस, चर्बी, मजा, और हड्डियाँ भरी हुई हैं; जो नसोंके जालसे वेष्टित हैं। इसमें कहीं मी शुचिपना नहीं है । अतः अशुचिपना ही बढ़ता रहता है। संसारभावनामधिकृत्याहसंसारभावनाको कहते हैं: माता भूत्वा दुहिता भगिनी भार्या च भवति संसारे । व्रजति सुतः पितृतां भ्रातृतां पुनः शत्रुतां चैव ॥ १५६ ॥ - टीका-संसारे परिभ्रमतां सत्त्वानां माता भूत्वा भूयः सैव च दुहिता भवति, सैव च पुनर्भार्या । सैव च संमृतौ परिवर्तमाना जामिरपि भवति । तथा पुत्रो भूत्वा पिता भवति । स एव सुतः पुनीतृत्वमायाति । स एव च पुनः सपत्नो भवतीत्येवमाजवंजवीभावे प्राये संसारे सर्वसत्त्वाः पितृत्वेन मातृत्वेन पुत्रत्वेन शत्रुत्वेन चेत्यादिना सम्बन्धेन कृतसम्बन्धा बभूवुरिति ॥ १५६ ॥ अर्थ-संसारमें जीव माता होकर पुत्री, बहिन और पत्नी हो जाता है, तथा पुत्र होकर पिता भ्राता और शत्रु तक हो जाता है। भावार्थ-संसारमें परिभ्रमण करता हुआ जीव माता होकर पुत्री हो जाता है, पुत्री होकर बहिन हो जाता है और बहिन होकर पुत्री हो जाता है। तथा पुत्री होकर पिता हो जाता है, पिता होकर १-एक ही भवमें अठारहनातेकी कथा प्रसिद्ध है जो स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी टीकामें दी गई है। यह ग्रंथ श्रीशुभचन्द्रकृत संस्कृतटीका और नई हिन्दीटीका सहित इसी शास्त्रमालामें छप रहा है।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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