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सुक्काए लेसाए दो ततियं परमसुक्कलेस्साए । थिरयाजियसेलेसिं लेसाईयं परमसुक्कं ॥ ८६ ॥
पहले दो शुक्ल ध्यान शुक्ल लेश्या में, तीसरा परम शुक्ल लेश्या में और अपनी अविचलता में बड़े पर्वत को भी जीत लेनेवाला चौथा परम शुक्ल ध्यान लेश्याओं से परे होता है ।
श्रवहाऽसंमोह-विवेग-विउसग्गा तस्स होंति लिंगाई । लिंगिज्जइ जेहिं मुणी सुक्कज्झाणोवगयचित्तो॥१०॥ शुक्ल ध्यान के चार लिंग अर्थात् परिचायक हैं - अवध, असम्मोह, विवेक और व्युत्सर्ग। इनसे मुनि के चित्त का शुक्ल ध्यान में संलग्न होना सूचित होता है।
चालिज्जइ बीभेइ य धीरो न परीसहोवसग्गेहिं ।
सुहुमेसु न संमुज्झइ भावेसु न देवमायासु ॥९१॥
परिषहों तथा उपसर्गों से विचलित और भयभीत न होना अवध लिंग का और सूक्ष्म पदार्थों तथा देवकृत माया से मोहग्रस्त न होना असम्मोह लिंग का स्वरूप है ।
देहविवित्तं पेच्छइ अप्पाणं तह सव्वसंजोगे । देहोवहिवोसग्गं निस्संग सव्वा कुणइ ॥ ६२ ॥
यह समझना कि मैं देह से भिन्न हूँ और देह से संदर्भित स्त्री, सन्तान आदि महज संयोग हैं शुक्ल ध्यान का परिचायक विवेक लिंग है । देह तथा अन्य परिग्रहों से निःसंग होना शुक्ल ध्यान का परिचायक व्युत्सर्ग लिंग है।
होंति सुहासव-संवर - विणिज्जराऽमरसुहाई विउलाई । झाणवरस्स फलई सुहाणुबंधीणि धम्मस्स ॥६३॥
पुण्य कर्मों का बन्ध, पाप कर्मों का संवर, संचित कर्मों की निर्जरा और स्वर्ग की प्राप्ति ये धर्मध्यान के उत्तरोत्तर विपुल और विशुद्ध होते जाने वाले फल हैं।
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