________________
एयं चव्विहं राग-दोष - मोहाउलस्स जीवस्स । रोद्दज्झाणं संसारवद्धणं नरयइमूलं ॥ २४ ॥
उक्त चार प्रकार का रौद्र ध्यान राग, द्वेष और मोह से व्याकुल जीव में होता है । यह जन्ममरण को बढ़ाने वाला और नरकगति का मूल है
1
कावोय - नील- काला लेसाओ तिव्वसंकलिट्ठाओ । रोद्दज्झाणोवगयस्स कम्मपरिणामजणियाओ ॥ २५॥
रौद्र ध्यान से ग्रस्त जीव के कर्म परिपाक से होने वाली कापोत, नील और कृष्ण ये तीन अतिशय क्लिष्ट लेश्याएं होती हैं।
लिंगाइँ तस्स उस्सण्ण-बहुल - नाणाविहारऽऽमरणदोसा । तेसिं चिय हिंसाइसु बाहिरकरणोवउत्तस्स ॥ २६ ॥
रौद्र ध्यानी के उत्सन्न दोष, बहुल दोष, नाना विध दोष और आमरण दोष होते हैं । ये दोष उसके बाह्य लक्षण हैं।
परवसणं अहिनंदइ निरवेक्खो निद्दओ निरणुतावो । हरिसिज्ज कयपावो रोद्दज्झाणोवगयचित्तो ॥ २७॥
रौद्र ध्यान में दत्तचित्त व्यक्ति दूसरों पर आई विपत्ति से प्रसन्न होता है । निरपेक्ष और निर्दय होता है । उसे ऐसा होने / रहने का कोई पश्चात्ताप भी नहीं होता ।
झाणस्स भावणाओ देसं कालं तहाऽऽसणविसेसं । आलंबणं कर्म झाइयव्वयं जे य झायारो ॥ २८ ॥ तत्तोऽणुप्पेहाओ लेस्सा लिंगं फलं च नाऊणं ।
धम्मं झाइज्ज मुणी तग्गयजोगो तओ सुक्कं ॥ २६ ॥ मुनियों को चाहिए कि वे भावना, देश, काल, आसन विशेष, आलंबन, क्रम, ध्यातव्य, ध्याता, अनुप्रेक्षा, लेश्या, लिंग और फल को जानकर धर्मध्यान में प्रवृत्त हों । धर्म ध्यान का अभ्यास करने के बाद उन्हें शुक्ल ध्यान की ओर बढ़ना चाहिए ।
।
14