________________
पिसुणासब्भासब्भूय-भूयघायाइवयणपणिहाणं।
मायाविणोऽइसंधणपरस्त पच्छन्नपावस्स॥२०॥ दूसरों को ठगने में तत्पर, मायाचारी और प्रच्छन्न पाप से युक्त अन्तःकरण वाले जीव का अनिष्ट, असभ्य, असत्य और प्राणघातक वचनों में संलग्न होना मृषानुबन्धी नामक दूसरा रौद्र ध्यान है।
तह तिव्वकोह-लोहाउलस्स भूओवघायणमणजं।
परदव्वहरणचित्तं परलोयावायनिरवेक्खं ॥२१॥ तीव्र क्रोध और लोभ से व्याकुल व्यक्ति के चित्त का दूसरों के धन का अपहरण करने जैसे नीच कर्म में संलग्न रहना स्तेयानुबन्धी नामक तीसरा रौद्र ध्यान है। ऐसा रौद्र ध्यानी व्यक्ति परलोक में होने वाली दुर्गति की भी चिन्ता नहीं करता।
सद्दाइविसयसाहणधणसारक्खणपरायणमटिं।
सव्वाभिसंकणपरोवघायकलुसाउलं चित्तं ॥२२॥ इन्द्रियों के विषय धन से सिद्ध होते हैं। इसलिए विषयासक्त जीव धन के संरक्षण का उद्यम करता रहता है। वह सभी से आशंकित रहता है। उसके मन में सबके घात करने का विचार आता है। यह विषय संरक्षणानुबन्धी नामक चौथा रौद्र ध्यान है।
इय करण-कारणाणुमइविसयमणुचिंतणं चउब्भेयं ।
अविरय-देसासंजयजणमणसंसेवियमहण्णं॥२३॥ उक्त चार प्रकार का रौद्र ध्यान कृत, कारित, अनुमोदन इन तीनों पर घटित होता है। यह अविरत और देशतः असंयत अर्थात् पाँचवें गुणस्थान तक के श्रावकों के मन में होता है।