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________________ श्राद्धविधि प्रकरण जिसे संयम लेनेका सुभीता न हो उसे संलेखन करके शत्रुजय तीर्थादिक श्रेष्ठ स्थान पर निर्दोष स्थण्डिल में (निर्दोष जगहमें ) विधिपूर्वक चतुर्विध आहार प्रत्याख्यामरूप आनन्दादि श्रावक के समान अनसन अंगीकार फरना। इस लिये कहा है कि तपणियमेणयमुख्खो, दाणे णय हुन्ति उत्तया भोगा। FE .:. देवचक्षण रज्जा अणसम मरणेण इन्दत्तं ॥१॥ तप और नियमसे मनुष्य को मोक्षपद की प्रप्ति होती है दान देनेसे मनुष्य को उत्तम भोग सम्पदा की प्राप्ति होती है और अन मा मृत्यु साधने से इन्द्र पदको प्राप्ति होती है। लौकिक शास्त्रमें भी कहा है कि- .. समाः सहस्त्राणि च संमा के जले, दशैवपग्नौ पतने व षोडशः। ___ बहाहवेषष्टिरशीतिगोगहे, अनाशने भारतचाक्षया गतिः॥१॥ जसमें पड़ कर मृत्यु पानेसे सात हजार वर्ष, अग्निमें पड़ कर मृत्यु पानेसे दस हजार वर्ष, झपापात करके मृत्यु पानेसे सोलह हजार वर्ष, महा संग्राम में मरण पानेसे साठ हजार वर्ष, गायके कलेवर में घुसकर मृत्यु पानेसे अस्सी हजार वर्ष, और अनसन करके ( उपवास करके ) मृत्यु पानेसे अक्षय गति होती है । फिर सर्व अतिवार का परिहार करने पूर्वक चार शरणादि रूप आराधना करना। उसमें दस प्रकारकी आराधना इस प्रकार है।.. पालो असु अइवारे षयाई उच्चरसु खमसु जीवेसु । ' वोसिरसु भावि अप्पा, अठारस पावठाणाई ॥१॥ - चउसरणदुक्कड गरिहणंच सुकडाणु मोअणं कुणसु। सुहभाव अणसां, पंचनमुक्कारसरणच ॥२॥ : १ पंचाचार के और बारह व्रतों के लगे हुये अतिचारों की आलोचना रूप पहिली आराधना समझना। २ आराधना के समय नये ब्रतं प्रत्याख्यान अंगीकार करने रूप दूसरी आराधना समझना। ३ सर्व जीबोंके साथ क्षमापना करने रूप तीसरी:आराधना समझना। ४ वर्तमान कालमें आत्मा को अठारह पाप स्थान त्यागने रूप चौथी आराधना समझना। ५ अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवली प्ररूपित धर्म इन चारोंका शरण अंगीकार करने रूप पांचवीं आराधना समझना। ६ जो जो पाप किये हुये हैं उन्हें याद करके उनकी गर्दा करना, निंदा करना, तसंप छठो आराधना समझना। जो जो सुकृत कार्य किये हों उनकी अनु. मोक्ना करना तद्प सातवीं आराधना समझना। ८ शुभ भावना याने बारह भावना भानेरूप आठवीं बाराधना जामना। चारों आहार का त्याग करके अनशन अंगीकार करने रूप मवमो आराधना कही है सरपंच परमेष्ठी नवकार महा मन्त्रका निरन्तर स्मरण रखना तदरूप दशमी आराधना है। । इस प्रकार की आराधमा फरमेसे यद्यपि उसी भवमें सिद्धि पदको न पाये तथापि सुदेव भवमें या सुनरे भवमें अवतार लेकर आतमें आठवें भवमें तो अवश्य ही मोक्षपद को पाता है । 'सतठ भवाई नायक.
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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