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श्राद्धविधि प्रकरण पर चढ़ता है उतने में ही श्रीदत्त ने शत्रु के समान उसे ऐसा धक्का मारा कि जिससे शंखदत्त तत्काल ही समुद्र में जा पड़ा। अहा कैसी आश्चर्य की घटना है कि तद्भव मोक्षगामी होनेपर भी श्रीदत्त ने इस प्रकार का भयंकर मित्रद्रोह किया । अपने इच्छित कार्यों की सिद्धि होने से वह दुर्बुद्धि श्रीदत्त हर्षित हो प्रातःकाल उठ कर बनावटी पुकार करने लगा कि अरे ! लोकों ! मेरा प्रिय मित्र कहीं पर भी क्यों नहीं देख पड़ता ? इस प्रकार कृत्रिम आडंबरों से अपने दोष को छिपाता हुआ वह सुवर्णकुल बंदरपर आ पहुंचा । उसने सुवर्णकुल में आकर वहां के राजा को बड़े बड़े हाथी समर्पण किये । राजा ने उनका उचित मूल्य देकर श्रीदत्त के अन्य किरियाणे वगैरह का कर माफ किया और श्रीदत्त को उचित सन्मान भी दिया। अब श्रीदत्त बड़े बड़े गुदामों में माल भरके आनंद सहित अपना व्यापार धंदा वहां ही करने लगा और उस कन्या के साथ लय करके सुखमें समय व्यतीत करने लगा। श्रीदत्त हमेशा राजदरबार में भी आया जाया करता था अतः राजा पर चामर वींजनेवाली को साक्षात् लक्ष्मी के समान रूपवती देखकर उस सुवर्णरेखा वेश्या पर वह अत्यंत मोहित हो गया। श्रीदत्त ने किसी राजपुरुष से पूछा कि यह औरत कौन है ? उससे जबाब मिला कि यह राजा की रखी हुई सुवर्णरेखा नामा मानवंती वेश्या है, परन्तु यह अर्धलक्ष द्रव्य लिये बिना अन्य किसी के साथ बात चीत नहीं करती। एक दिन अर्धलक्ष द्रव्य देकर श्रीदत्त ने उस गणिका को बुलाकर रथ मंगवाया और रथ में एक तरफ उसको एवं दूसरी तरफ अपनी स्त्री ( उसी कन्या को) को बैठाकर तथा स्वयं बीच में बैठ शहर के बाग वगीचों की विहार क्रीड़ा करके पास के एक वन में एक चंपे के वृक्ष की उत्तम छाया में विश्राम लिया। श्रीदत्त उन दोनों स्त्रियों के साथ स्वच्छंद हो कामकेलि, हास्य विनोद करने लगा इतने ही में वहां पर अनेक धानरियों के वृन्द सहित कामकेलि में रसिक एक विचक्षण वानर आकर वानरियों के साथ यथेच्छ क्रीड़ा करने लगा। यह देख श्रीदत्त उस वेश्या को इशारा करके कहने लगा कि हे प्रिये ! देख यह वानर कैसा विचक्षण है और कितनी स्त्रियों के साथ काम क्रीड़ा कर रहा है । उसने कहा कि ऐसे पशुओं की क्रीड़ा में आश्चर्यजनक क्या है ? और इस में इसकी प्रशंसनीय दक्षता ही क्या है ? इनमें कितनी एक तो इसकी माता ही होंगी, कितनी एक इसकी बहिनें तथा कितनी एक इसकी पुत्रियां और कितनी एक तो इस की पुत्री की भी पुत्रियां होंगी कि जिनके साथ यह कामक्रीडा कर रहा है । यह वाक्य सुनकर श्रीदत्त उंचे स्वर से कहने लगा "यदि सचमुच ऐसा ही हो तो यह सर्वथा अति निन्दनीय है । अहा ! धिक्कार है ! ये तिर्यंच इतने अविवेकी हैं कि जिन्हें अपनी माता, बहिन या पुत्री का भी भान नहीं! अरे ये तो इतने मूर्ख हैं कि जिन्हें कृत्याकृस्य का भी भान नहीं ! ऐसे पापियों का जन्म किस काम का ? श्रीदत्त के पूर्वोक्त वचन सुनकर जाता हुआ पीछे हर कर श्रीदत्त के सन्मुख वह वानर कहने लगा कि अरे रे ! दुष्ट दुराचारी ! दूसरों के दूषण निकाल कर बोलने में ही तू वाचाल मालूम होता है। पर्वत को जलता देखता है परन्तु अपने पैर के नीचे जलती हुई आग को नहीं देखता । कहा है कि
राह सरिसव मिजाणि, परछिदाणि गवेसई । अप्पणो बिरुलमित्ताणि, पासंतो वि न पासई ॥१॥