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________________ श्राद्धविधि प्रकरण एवमेव सव्वविरई, मणे कुणतो सुसावो णिच्च॥ पालेभम गिहथ्यच, अप्पमहन्नं च मन्नतो॥५॥ इसी प्रकार अपने आपको अधन्य समझता हुआ निरन्तर सर्व विरति को मनमें धारणा रखता हुआ सुश्रावक गृहस्थ पनका पालन करता है। ते धन्ना सपरिसा, पबित्तिनं तेहिं धरणि बलयमिणं । निम्महि अमोह पसरा, जिणदिक्खं जे पवजन्ति ॥६॥ जिन्होंने मोहको नष्ट किया है और जिन्होंने जनी दीक्षा अंगोकार की है ऐसे पुरुषोंको धन्य है उन्हींसे यह पृथ्वी पावन होती है। "भाव श्रावक के लक्षण" इयिदि अथ्थ संसार, विसय प्रारम्भगेह दसणाभो। गरिपाइ पवाहे, पुरस्सर प्रागमविची ॥१॥ दाणाई जहा सत्ती, पवस्तणं विहिररत्त दुठे । ___ अझझथ्य असंबद्ध, परथ्यकामोव भोगीम ॥२॥ वेसाइ वगिह वासं, पालइ सत्तरस पय निबद्धन्तु। भावगयभावसापग, लख्खणभेयसपासे ॥३॥ १ स्त्रीसे वैराग्य, २ इन्द्रियों से वैराग्य भावना करे, ३ द्रव्यसे वैराग्य भाव भावे, ४ संसार से विराग चिन्तन करे, ५ विषयसे वैराग्य, आरम्भ को दुःख रूप जाने. ८ शुद्ध समकित पाले, गतानुगत-भेडा चालका परित्याग करे, १० आगम के अनुसार प्रवृत्ति करे, ११ दानादि देनेमें यथा शक्ति प्रवृत्ति करे, १२ बिधिमागेकी गवेषणा करे, १३ राग द्वेष न रक्खे, १४ मध्यस्थ गुणोंमें रहे, १५ संसार में आसक्त होकर न प्रवर्ते, १६ परमार्थ के कार्यमें रुचि पूर्वक प्रवृत्ति करे, १७ वेश्या के समान गृह भाव पाले ये सत्रह लक्षण संक्षेप से भाव श्रावक के बतलाये हैं। अब इन पर पृथक् पृथक् विचार करते हैं। इथ्यि प्रणथ्य भवणं, चलचित्तं नरयवट्टणी भूभा ____ जाणं तोहि प्रकामी, वसवती होइ नहुत्तीसे ॥४॥ - स्त्री वैराग्य-स्त्री अनथ का मूल है, चपल चित्त है, दुर्गति जानेका मार्ग रूप है यह समझ कर हितार्थी पुरुष बीमें आसक नहीं होता। ___इन्दिय चबल तुरगे, दुग्गइ मग्गाणु धाविरे निच्च। भाविध भवस्सरूवे, संभइ सन्नाण रस्सीहि ॥५॥ सदैव दुर्गतिके मार्गकी ओर दौड़ते हुये इन्द्रिय रूप चपल घोड़ोंको संसार स्वरूप का विचार करने से समान रूप लगाम से रोके।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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