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श्राद्धविधि प्रकर
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रक्खा जाता हो, जहां चिक वगैरह बांधी जाती हो, जो सदैव साफ किया जाता हो, जिस घर में बडे छोटों की सुख प्रतिष्ठित व्यवस्था होती हो, जिसमें सूर्य की किरणें प्रवेश करती हों परन्तु सूर्य ( धूप ) न आता हो, जहां दीपक अखंड दीपता हो, जहां रोगी वगैरह का पालन भली भांति होता हो, जहां थक कर आये हुए • मनुष्यों की सेवा बरदास्त होती हो, वैसे मकानमें लक्ष्मी स्वयं निवास करती ।
इस प्रकार देश, काल, अपनी संपदा, जाति वगैरहसे औचित्य, तैयार कराए हुए घरमें प्रथमसे स्नात्रविधि साधर्मिक वात्सल्य, संघ पूजा वगैरह करके फिर घरको उपयोग में लेना । उसमें शुभ मुहूर्त शुभशकुन वगेरह बलधर चिनाते समय, प्रवेश वगैरह में बारंबार देखना । इस तरह बने हुये घरमें रहते हुये लक्ष्मीकी वृद्धि होना कुछ बड़ी बात नहीं ।
विधियुक्त बनाये हुये घरसे लाभ
सुना जाता है कि उज्जैन में दांता नामक सेठने अठारह करोड़ सुवर्ण मुद्रायें खच कर बारह वर्ष तक वास्तु शास्त्र में बतलाये हुए बिधिके अनुसार सात मंजिल का एक बड़ा महल तैयार कराया। परन्तु रात्रिके समय 'पड़ पड़' इस प्रकारका शब्द घरमेंसे सुन पड़नेके भयसे दांता सेठने जितना धन खर्च किया था उतना ही लेकर वह घर विक्रमार्क को दे दिया। विक्रमादित्यको उसी घरमेंसे सुवर्ण पुरुषकी प्राप्ति हुई। इसलिये बिधि पूर्वक घर बनवाना चाहिये ।
विधि से बना हुवा और बिधिले प्रतिष्ठित श्री मुनि सुव्रत स्वामीके स्तूपके महिमासे प्रबल सैन्य से भी कौणिक राजा वैशाली नगरी स्वाधीन करनेके लिए बारह वर्ष तक लड़ा तथापि उसे स्वाधीन करनेमें समर्थ न हुआ। चारित्रसे भ्रष्ट हुये कूलवालूक नामक साधुके कहनेसे जब स्तुप तुडवा डाला तब तुरत ही उस 'नगरीको अपने स्वाधीन कर सका ।
इसलिये घर और मन्दिर वगैरह विधिसे ही बनवाने चाहिए। इसी तरह दुकान भी यदि अच्छे पड़ोस में हो, अति प्रगट न हो, अतिशय गुप्त न हो, अच्छी जगह हो, बिधिले वनवाई हुई हो, प्रमाण किये द्वारवाली हो इत्यादि गुण युक्त हो तो त्रिवर्गकी सिद्धि सुगमता से होसकती है। यह प्रथम द्वार समझना ।
२ त्रिवर्ग सिद्धिका कारण, आगे भी सब द्वारोंमें इस पदकी योजना करना । याने त्रिवर्ग की सिद्धि के कारणतया उचित विद्यायें सीखना, वे विद्यायें भी लिखने, पढ़ने, व्यापार सम्बन्धी, धर्म सम्बन्धी, अच्छा अभ्यास करना । श्रावकको सब तरहकी विद्याका अभ्यास करना चाहिये। क्योंकि न जाने किस समय कौनसी कला उपयोगी हो जाय। अनपढ़ मनुष्य को किसी समय बहुत सहन करना पड़ता है। कहा है किअपि सिखिज्जा, सिख्खियं न निरध्यमं ।
मट्ट पसाएण, खज्जए गुलतु वनं ॥ १ ॥
अट्टम भी सीखना क्योंकि सीखा हुआ निरर्थक नहीं जाता। अट्टमट्ट के प्रभावसे गुड और तुम्बा खाया जा सकता है । ( यहां पर कोई एक दृष्टांत है परन्तु प्रसिद्ध नहीं )