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श्राद्धविधि प्रकरण ४ जिणगिहिए न्हवण । ५जिणधणबुड्ढी।६ महा पूआ। ७ धम्म जागरिआ। ८ सुअपुआ। ९ उजवणं । १० तह तिथ्थप्प भावणा । ११ सोही ॥१३॥
प्रति वर्ष ग्यारह कृत्य करने चाहिये जिनके नाम इस प्रकार हैं। १ संघपूजा, २ साधर्मिक भक्ति, ३ यात्रात्रय, ४ जिनघर पूजा, ५ देव द्रव्य वृद्धि ६ महापूजा ७ धर्मजागरिका ८ ज्ञान पूजा, ६ उद्यापन, १० तीर्थ प्रभावना, और ११ शुद्धि । इन ग्यारह कृत्योंका खुलासा नीचे मुजव है। १ प्रतिवर्ष जघन्यसे याने कमसे कम एकेक दफा संघार्चन अर्थात् चतुर्विध संघकी पूजा करना। २ साधर्मिक भक्ति याने साधर्मिक वात्सल्य करना। ३ यात्रात्रय याने १ रथयात्रा, २ तीर्थ यात्रा, ३ अष्टान्हिका यात्रा करना । ४ जिनेन्द्र गृहस्नपन मह याने मन्दिरमें बड़ी पूजा पढाना या महोत्सव करना। ५ देव द्रव्य बृद्धि याने माला पहनना, इन्द्रमाला पहनना पेहेरामणी करना, इसी प्रकार आरती उतारना आदिसे देवद्रव्यकी वृद्धि करना । ६ महापूजा याने वृहत् स्नात्रादिक करना। ७ धर्म जागरिका याने रात्रि धर्म निमित्त जागरण करना अर्थात् प्रभुके गुण कीर्तन
और ध्यान वगैरह रात्रिके वख्त करना। ८ ज्ञान पूजा याने श्रुत ज्ञानकी विशेष पूजा करना। ६ उद्यापन याने वर्ष भरमें जो तप किया हो उसका उजमणा करना। १० तीर्थ प्रभाबना याने जैन शासनकी उन्नति करना । ११ शुद्धि याने पापकी आलोचना लेना। श्रावकको इतने कृत्य प्रति वर्ष अवश्य करने योग्य हैं। - बथ्थं पत्तं च पुथ्यं च, कंबलं पायपुच्छणं।
दंड संथारयं सिज्ज अन्न किंचि सुभभई ॥१॥ साधु सध्वीको बस्त्र, पात्र, पुस्तक, कंबल, पाद प्रोंछन, दंडक, संस्थारक, शय्या, और अन्य जो सूझे सो दे। उपधी दो प्रकारकी होती है। एक तो ओधिक उपधो और दूसरो उपग्रहिक उपधी। मुहपत्ति, दंड, प्रोंछन, आदि जो शुद्ध हो सो दे। याने संयमके उपयोगमें आनेवाली वस्तु शुद्ध गिनी जाती है। इसलिये कहा है कि ...जं वट्टई उवयारे । उवगरणं तमि होई उवगरणं ।
अरेगं अहिगरणं अजयो अजयं परिहर तो जो संयमके उपकारमें उपयोगी हो वह उपकरण कहलाता है, और उससे जो अधिक हो सो अधिकरण कहलाता हैं । अयतना करनेवाला साधु अयतना से उपयोग में ले तो वह उपकरण नहीं परन्तु अधिकरण गिना जाता है। इस प्रकार प्रवचन सारोद्धारकी वृत्तिमें लिखा है। इसी प्रकार श्रावक श्राविका की भी भक्ति करके यथाशक्ति संघ पूजा करनेका लाभ उठाना। श्रावक श्राविका को विशेष शक्ति न होने पर सपारी वगैरह देकर भी प्रति वर्ष संघ पूजा करनेके बिधिको पालन करना। तदर्थ गरीवाई में स्वल्प दान करनेसे भी महाफल की प्राप्ति होती है। इसलिये कहा है कि
संपत्तौ नियमः शक्त्यौ, सहन यौवने व्रतम् । दारिद्र दानमप्यल्पं, महालाभाय जायते ॥
संपदामें नियम पालन करना, शक्ति होने पर सहन करना, यौवनमें ब्रत पालन करना, गरीबाईमें भी दान देना इत्यादि यदि अल्प हों तथापि महाफलके देने वाले होते हैं।