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________________ ३८७ श्राद्धविधि प्रकरण तब तक ही मेरु पवत ऊंचा है, तब तक ही समुद्र दुष्तर है, (विषमगति दुःखसे बन सके) जब तक धीर पुरुष उस कार्य में प्रवृत्त नहीं होते। इस प्रकार जिससे दुनिर्वाह नियम लिया न जासके उसे भी सुनिर्वाह नियम तो अवश्य ही अंगीकार करना चाहिये। जैसे कि मुख्यवृत्ति से वर्षाकाल के दिनोंमें कृष्ण, कुमार पालादिक के समान सर्व दिशाओं में गमनका निषेध करना उचित है यदि ऐसा न कर सके तो जिस जिस दिशामें गये बिना निर्वाह हो सकता हो उस दिशा संबन्धी गमनका नियम तो अवश्य ही लेना चाहिये। इसी प्रकार सर्व सचित्तका त्याग करनेमें अशक्त हों उन्हें जिसके बिना निर्वाह हो सकता है वैसे सचित्त पदा. र्थका अवश्य परित्याग करना चाहिये । जब जो बस्तु न मिलती हो जैसे कि दरिद्रीको हाथी पर बैठना, मारवाड़ की भूमिमें नागरवेल के पान खाना वगैरह स्व स्वकाल बिना आम वगैरह फल खाना नहीं बन सकता। तब फिर उस वस्तुका त्याग करना उचित ही है। इस प्रकार अस्तित्व में न आने वाली वस्तुका परित्याग करनेसे भी विरपि वगैरह महाफल की प्राप्ति होती है। __ सुना जाता है कि राजगृही नगरीमें एक भिक्षुकने दीक्षा ली थी उसे देखकर 'इसने क्या त्याग किया' इत्यादिक वचनसे लोग उसकी हंसी करने लगे । इस कारण गुरु महाराज को वहांसे बिहार करनेका विचार हुवा। अभयकुमार को मालूम होनेसे उसने चौराहेमें तीन करोड़ सुवर्ण मुद्राओंके तीन ढेर लगाकर लोगोंको बुलाकर कहा कि 'जो मनुष्य कुवे वगैरहके सचित्त जल, अग्नि और स्त्री इन तीन बस्तुओंको स्पर्श करनेका जीवन पर्यन्त परित्याग करे वह इस सुवर्ण मुद्राओं के लगे हुये तीन ढेरोंको खुशीसे उठा ले जा सकता है। यह सुनकर विचार करके नगरके लोग बोले इन तीन करोड़ सुवर्ण मुद्राओंका त्याग कर सकते हैं परन्तु जलादि तीन बस्तुओंका परित्याग नहीं किया जा सकता। तब अभयकुमार बोला कि अरे मूर्ख मनुष्यो' ! यदि ऐसा है तब फिर इस भिक्षुक मुनिको क्यों हंसते हो ? जिन वस्तुओंका त्याग करनेमें तीन करोड़ सुवर्ण मुद्रायें लेने पर भी तुम असमर्थ हो उन तीन वस्तुओंका परित्याग करने वाले इस मुनि की हंसी किस तरह की जासकती है, यह बात सुन बोधको पाकर हसी करने वाले नगर निवासी लोगोंने मुनिके पास जाकर अपने अपराध की क्षमा मांगी। इस तरह अस्तित्व में न होनेवाली वस्तुओं का त्याग करनेसे भी महालाभ होता है अतः उनका नियम करना श्रेयस्कर है। यदि ऐसा न करे तो उन २ वस्तुओं को ग्रहण करनेमें पशुके समान अविरतिपन ही प्राप्त होता है और वह उनके फलसे बंचित रहता है। भतृ हरिने भी कहा है कि-क्षान्तं न तपया गृहोचित सुखं त्यक्तं न सन्तोषतः। सोढाः दुस्सह शीत वात तपन क्लेशाः न तप्तं तपः ॥ ध्यातं वित्तमहनिशं नियमितप्राणैन मुक्तेः पदं। तत्तत्कमकृतं यदेव मुनिभिस्तः फलः वंचिताः॥” क्षमासे कुछ सहन नहीं किया, गृहस्थाबास का सुख उपभोग किया परन्तु संतोषसे उसका त्याग न किया; दुःसह शीत बात, तपन वगरह सहन किया परन्तु तप न किया रात दिन नियमित धनका ध्यान किया परन्तु मुक्तिपद के लिये ध्यान न किया, उन उन मुनियोंने वे कर्म भी किये परन्तु उनके फलसे भी वेवंचित रहे। यदि एक ही दफा भोजन करता हो तो भी एकासने का प्रत्याख्यान किये बिना एकासने का फल नहीं
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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