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________________ mammmmm ३७२ श्राविधि प्रकरण नवकार को उच्चार करके इस गाथाको तीन दफा पढ़कर सागारी अनशन अंगीकार करना, शयन करते समय पंच परमेष्ठि नमस्कार का स्मरण करना और शय्यामें एकला ही शयन करना; परन्तु स्त्रीको साथ लेकर न सोना, क्योंकि स्त्रीको साथ लेकर सोनेसे निरन्तर के अभ्यास से विषय प्रसंगका प्राबल्य होता है। इस लिये शरीर जागृत होनेसे मनुष्य को विषय की वासना बाधा करती है। अतः कहा है कि:यथाग्नि संन्निधानेन । लाक्षाद्रव्यं विलीयते ॥ धीरोपि कृशकायोपि। तथा स्त्री सन्निधो नरः ॥१॥ जैसे अग्निके पास रहनेसे लाख पिघल जाता है, वैसे ही चाहे जैसा मनुष्य स्त्री पास होनेसे कामका बांच्छा करता है। मनुष्य जिस बासनासे शयन करता है वह उस बासना सहित ही पाता है, जब तक जागृत न हो (विषय बासनासे सोया हो तो वह अव तक जागृत न हो तब तक बिषय बासनामें ही गिना जाता है ) ऐसा वीतरागका उपदेश है। इस कारण सर्वथा उपशान्त मोह होकर धर्म वैराग्य भावनासे-अनित्य भावनासे भावित होकर निद्रा करना, जिससे स्वप्न दुःस्वप्नादिक आते हुये रुक कर धर्ममय स्वप्न वगैरह प्राप्त होसकें। इस तरह निःसंगतादि आत्मकतया आपत्तियों का बाहुल्य है। आयुष्य सोपक्रम है, कर्मकी गति विचित्र है, यदि इत्यादि जान कर सोया हो तो पराधीनता से उसकी आयुष्य की परिसमाप्ति हो जाय तथापि वह शुभगति का ही पात्र होता है, क्योंकि अन्त समय जैसी मति होती है वैसी ही गति होती है । कपटी साधु विनय रत्न द्वारा मृत्युको प्राप्त हुये पोषधमें रहे हुये उदाई राजाके समान सुगति गामी होता है, उदाई राजा विधिपूर्वक होकर सोया था तो उसकी सद्गति हुई, वैसे ही दूसरे भी विधियुक्त शयन करें तो उससे सद्गति प्राप्त होती है। अब उत्तरार्ध पदकी व्याख्या बतलाते हैं। फिर रात्रि व्यतीत होनेपर निद्रा गये बाद अनादि भवोंके अभ्यास रसके उल्हसित होनेसे दुःसह काम को जीतनेके लिये स्त्रीके शरीरकी अशुचिता वगैरहका विचार करे । आदि शब्दसे जम्बूस्वामी स्थूल भद्रादिक महर्षियों तथा सुदर्शनादिक सुश्रावकों की दुष्पल्य शील पालन की एकाग्रता को, कषायादि दोषोंके विजयके उपायको, भवस्थिति की अत्यन्त दुःखद दशाको तथा धर्म सम्बधी मनोरथों को बिचारे, उनमें स्त्रीके शरीरकी अपवित्रता, दुगंच्छनीयता, बगैरह सर्व प्रतीत ही है और वह पूज्य श्री मुनि सुन्दर सूरिजीके अध्यात्मकल्पद्रुम ग्रन्थमें बतलाया भी हैचार्मास्थिमज्जात्रवसास्त्र मांसा । मेध्याघशुच्य स्थिरपुद्गलानां ॥ स्त्रीदेहपिंडाकृति संस्थितेषु । स्कंधेषु किं पश्यसि रम्यमात्मन् ॥१॥ हे चेतन ! चमड़ा, हाड़, मजा, नसें, आंतें, रुधिर, मांस, और बिष्टा आदि अशुचि और अस्थिर पुद्गलोंके स्त्रीके शरीर संबन्धी पिण्डकी आकृतिमें रही हुई तू कौनसी सुन्दरता देखता है। विलोक्य दूरस्थममेध्यमल्पं । जुगुप्ससे मोटितनाशिकस्त्वं ॥
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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