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________________ श्राद्धविधि प्रकरण ___ इस प्रकार उस हंसनीके मुख से अपनी बहिन का वृत्तान्त सुन कर अति दुःखित हो तिलकमंजरी विलाप करने लगी और यह चिन्ता करने लगी कि हाय दुर्भाग्य वशात् उत्पन्न हुवा यह अब तेरा तिर्यंचपन किस तरह दूर होगा ? उसका हृदय स्पर्शी विलाप सुनकर तत्काल ही चन्द्रचूड़ देवता ने पानी छिड़क कर अपनी दिव्य शक्तिसे हंसिनी को उसके स्वाभाविक रूपमें मनुष्यनी बना दिया। साक्षात् सरस्वती और लक्ष्मी के समान अशोकमंजरी और तिलकमंजरी रत्नसार को हर्षका कारण हुई। फिर हर्षोल्लसित हो शीघ्रता से उठकर दोनों बहिनों ने परस्पर प्रेमालिंगन किया। अब कौतुक से मुसकरा कर रत्नसार कुमार तिलकमंजरी से कहने लगा कि हे चन्द्रवदना यह तुम्हारा आनन्ददायी दोनोंका मिलाप हुआ है, इससे हम तुमसे कुछ भी पारितोषिक मांग सकते हैं। इसलिये हे मृगाक्षी! क्या पारितोषिक दोगी। जो देना हो सो जल्दीसे दे देना चाहिये । क्योंकि औचित्य दान देने में और धर्मकृत्यों में बिलम्ब करना योग्य नहीं। ला'चौचित्पादिदानण । हड्डा मुक्ततीगृहे ॥धर्म रोगरिपुच्छेदे । कालोपो न शश्यते ॥ रिसबत देनेमें, औचित्य दान लेनेमें, ऋण उतारने में, पाप करने में, सुभाषित सुनने में, वेतन लेनेमें, धर्म करने में, रोग दूर करने में, और शत्रुका उच्छेद करने में अधिक देर न लगाना चाहिये । क्रोधावेशेनदी पूरे। प्रवेशे पाप कर्मणि ॥ अजीर्णभुक्तो भीस्थाने । कालक्षेपो प्रशश्यते ॥ क्रोध करने में, नदी प्रवाह में प्रवेश करने में, पाप कृत्य करने में, अजीर्ण हुये बाद भोजन करने में, और भय स्थान पर जानेमें बिलम्ब करना योग्य है। लजा, कम्प, रोमांच, प्रस्वेद, लीला, हावभाव आश्चर्य वगैरह विविध प्रकार के विकारों द्वारा क्षोभित हुई तिलकमंजरी धैर्यको धारण करके बोली सर्व प्रकार के उपकार करने वाले हे कुमारेन्द्र ! आपको पुरुष कारमें सर्वस्व समर्पण करना है और उस सर्वस्व समर्पण करनेका यह कौल करार समझिये। यों बोलकर प्रसन्नता पूर्वक अपने चित्तके समान तिलकमंजरी ने रत्नसार कुमार के गलेमें मोतियों का एक मनोहर हार डाल दिया । निस्पृह होने पर भी कुमार ने वह प्रेम पुरस्कार स्वीकार किया। तिलकमंजरी ने तोते की भी कमलों से सत्वर पूजा की । औचित्य कृत्य करने में सावधान चन्द्रचूड देव कहने लगा कि हे कुमार! प्रथम तुम्हें तुम्हारे पुण्यने दी हैं और अब मैं ये दोनों कन्यायें आपको समर्पण करता हूं। मंगल कार्यमें विघ्न बहुत आया करते हैं, इसलिये जिस प्रकार आपने प्रथम इनका वित्त ग्रहण किया है वैसे ही आप अब शीघ्र इनका पाणिग्रहण करें। ऐसा कह कर वह चन्द्रचूड देव कन्याओं सहित कुमार को विवाहके लिये हर्षित हो एक तिलक बृक्षकी कुंजमें ले गया। अपना स्वाभाविक रूप करके चन्द्रचूड़ ने तुरन्त ही चक्रेश्वरी देवीके पास जाकर यहां पर बनी हुई सर्व घटना कह सुनाई। खबर मिलते ही एक सुन्दर दिव्य विमानमें बैठ कर अपनी सखियों सहित श्री चक्केश्वरी देवी शीघ्र ही वहां पर आ पहुंची । गोत्र देवीके समान उसे वधू वरने प्रणाम किया । ससे कुलमें बड़ी स्त्रीके समान चक्क.
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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