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________________ श्राद्धविधि प्रकरण पृथ्वी पर चिरजीवित रहो! पामर और दीनताको तथा दुःखावस्था को प्राप्त हुई मेरे लिये जो आपने कष्ट उठाया है और उससे जो आपको दुःख सहन करना पड़ा है तदर्थ मुझे क्षमा करें। मैं महापुण्य के प्रतापसे आपकी गोदको प्राप्त कर सकी है। कुमार बोला-“हे प्रिय वोलने वाली हंसी तू कौन है ? किस लिये तुझे विद्याधर पकड़ता था और यह तुझे ममुष्य भाषा बोलनी कहांसे आई ! हंसी बोलने लगी कि:-मैं अपना वृतान्त सुनाती हूँ आप सावधान होकर सुनें! घेतान्य पर्वत पर रथनूपुर चक्रवालपुर का तरूणीमृगांक नामक तरुणियों में आसक्त एक राजा है। वह एक दिन आकाश मार्गसे कहीं जा रहा था, उस वक्त कनकपुरी नगरीके उद्यानमें उसने एक सुन्दराकार वाली अशोकमंजरी को देखा। सानन्द हिंडोलेमें झूलती हुई साक्षात् अप्सरा के समान उस बालिकाको देख कर ज्यों चन्द्रको देख कर समुद्र शोभायमान होता है त्यों वह चलचित्त हो गया। फिर उसने अपनी विद्याके बलसे प्रचंड वायु द्वारा वहांसे उस कन्याको हिंडोले सहित हरन करली, उसने उसे हरन करके जब महा भयंकर शबरसेना नामक अटवीमें ला छोड़ी तब वह कन्या मृगीके समान भयसे त्रसित हो फूट फूट कर रोने लगी। फिर विद्याधर कहने लगा कि हे सुश्रु ! इस प्रकार डरकर तू कम्पायमान क्यों हो रही है ? तू किस लिये चारों दिशाओंमें अपने नेत्रोंको फिरा रही है ! तू किस लिये विलाप करती हैं मैं तुझे किसी प्रकार का दुःख न दूंगा। मैं कोई चोर नहीं हूँ। एवं परदार लंपट भी नहीं, परन्तु मैं विद्या. धरों का एक महान राजा हूँ, तेरे अनन्त पुण्यके उदय से मैं तेरे वश हुआ हूँ मैं तेरा नौकर जैसा बन कर प्रार्थना करता हूं कि हे सुन्दरी! तू मेरे साथ पाणिग्रहण कर जिससे तू तमाम विद्याधर स्त्रियोंकी स्वामिन होगी। अशोकमंजरी ने उसकी बातका कुछ भी उत्तर न दिया, क्योंकि जो प्रगटमें ही अरुचि कर हो उस बातका कौन उत्तर दे! माता पिता सगे सम्बन्धियों के वियोगसे यह इस वक्त बड़ी दुःखी है, परन्तु धीरे धीरे अनुक्रम से यह मेरी इच्छा पूर्ण करेगी । इस आशासे जिस तरह शास्त्रका पढने वाला शास्त्रको याद करता है, वैसे ही उसने अपनी सर्व इच्छा पूर्ण कराने वाली विद्याको स्मरण करके उसके प्रभाव से उसका रूप बदल कर जैसे नाटक करने वाला अपना रूप बदल डालता है वैसे उसका तापसकुमारका रूप बना दिया। नाना प्रकारके तिरस्कार के समान सत्कार कर,आपत्ति के समान आने जाने के प्रचार और उपचार कर, तथा प्रेमालाप करके उस तापस कुमार के रूपमें रही हुई कन्याको उस दुष्टबुद्धि विद्याधर राजाने कितने एक समय तक समझाया बुझाया, परन्तु उसके तमाम प्रयत्न ऊसर भूमिमें बीज बोनेके समान निष्फल हुये। यद्यपि उसके किये हुये सर्व प्रयत्न व्यर्थ हुये तथापि चित्त विश्राम हुये मनुष्यके समान उसका उस कन्या परसे चित्त न उतरा। वह दुष्ट परिणाम पाला विद्याधर एक समय किसी कार्यवश अपने गांव चला गया था, उस समय है कुमारेन्द्र ! हिंडोलेमें झुलते हुये उस तापस कुमारने वहां पर आपको देखा था। फिर वह आपकी भक्ति करके और आप पर विश्वास रख कर अपनी बीती हुई घटना कहने के लिये तैयार हुवा था, इतनेमें ही 'वह दुष्ट विद्याधर वहां पर आ पहुंचा और अपने विद्यावल से प्रचंड वायु द्वारा उस तापसकुमार को वहांसे
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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