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________________ m श्राद्धविधि प्रकरण मेरी बहिन जो आज यहां हा मिले तो हे निमित्त ज्ञानमें कुशल शुकराज ! मैं बड़ी प्रसन्नता से तेरी कमल पुष्पों से पूजा करूंगी। कुमार बोला-"जो तू कहता है सो सत्य ही होगा क्योंकि विद्वान् पुरुषोंने तेरे क्वनका विश्वास पाकर ही प्रथम भी तेरी बहुत दफा प्रशंसा की है। इतनेमें ही अकस्मात् आकाश मार्गमें मन्द मन्द धुगरियोंका मधुर आवाज सुन पड़ने लगा। वे रत्न जड़ित धूगरियां मन्द मन्द आवाज से चन्द्र मण्डल के समान दृश्यको धारण कर शोभने लगीं। कुमार शुकराज और तिलकमंजरी वगैरह चकित होकर ऊपर. देखने लगे। इतने ही अति विस्तीर्ण आकाश मार्गको उलंघन करनेके परिश्रमसे आकुल ब्याकुल बनो हुई एक हंसी कुमारको मोक्में आ पड़ी। वह हंसी किसीके भयसे कंपायमान हो रही थी। स्नेहके आवेशले उकष्टकी लगा कर वह कुमारके सन्मुख देखकर मनुष्य भाषामें बोलने लगी कि हे पुरुष रत्न! हे शरणागत वत्सल, हे सात्विक कुमार! मुझ कृपा पात्रका रक्षण कर ! मुझे इस भयसे मुक्त कर। मैं तेरी शरण आई हू, तशरण देनेके योग्य है, मैं शरण लेनेकी अर्थी हूँ, जो बड़े मनुष्योंकी शरण आता है वह सुरक्षित रहता है। वायुका स्थिर होना, पर्वतका चलायमान होना, पानीका जलना, अग्निका शीतल होना, परमाणुका मेरु होना, मेरुका परमाणु बनना, आकाशमें कमलका होना, और गधेके सिर सींग होना, ये न होने योग्य भी कदापि बन जाय परन्तु धीर पुरुष अपनी शरणमें आये हुयेको कदापि नहीं छोड़ते। उत्तम पुरुष शरणागत का रक्षण करनेके लिये अपने राज्य तकको तृण समान गिनते हैं, धनका व्यय करते हैं, प्राणोंको भी तुच्छ गिनते हैं, परन्तु शरणागत को आंच नहीं आने देते। हंसीके पूर्वोक्त बचन सुन कर उसकी पांखों पर अपना कोमल हाथ फिराता हुआ कुमार कोला कि हे हंसनी! तू कायरके समान डरना नहीं, यदि तुझे किसी नरेन्द्र, खेवरेन्द्र या किसी अन्यसे भय उत्पन्न हुआ हो तो मैं उसका प्रतीकार करनेके लिए समर्थ है; परन्तु जब तक मुझमें प्राण हैं. तब तक मैं तुझे अपनी गोदमें बैठी हुई को न मरने दूंगा। शेष नागको छोड़ी हुई कांचलीके समान श्वेत तू अपनी पांखोंको मेरी गोदमें बैंठी हुई क्यों हिला रही है ? यों कह कर सरोबर मेंसे निर्मल जल और श्रेष्ठ कमलके तंतू ला कर उस आकुल व्याकुल बनी हुई हंसीको दयालु कुमार शीतल करने लगा। यह कौन है ? कहांसे आई ? इसे किसका भय हुआ? यह मनुष्यकी भाषा कैसे बोलती है ? इस प्रकार जब कुमार वगैरह विचार कर रहे थे उतनेमें ही अरे ! तीन लोकका नाश करने वाले यमराज को कुपित करनेके लिए यह कौन उद्यम करता है ? यह कौन अपनी जिन्दगी की उपेक्षा कर शेष नागकी मणिका स्पर्श करता है ? यह कौन है कि जो कल्पान्तकालके अग्निज्वाला में अकस्मात प्रवेश काना चाहता है ? यह भयानक वाणी सुन कर वे चारों जने चकित हो मये, शुकराज तत्काल ही उठ कर मन्दिरके दरवाजे के सन्मुख आ कर देखता है तो गंगानदी की बाढ़ के समान आकाश मार्गसे आते हुए विद्याधर रानाके महा भयंकर अतुल सैन्यको देखा । तब उस तीर्थके प्रभावसे और देव महिमासे तथा भाग्यशाली रत्नसार कुमारके अदभुत भाग्योदय से या कुमारके संसर्गसे वीरताके प्रतमें धोरी बन धैर्य धारण करके वह शुकराज उच्च शब्दसे उन सैनिकों को अति तिरस्कार पूर्वक कहने लगा, अरे ! विद्याधर वीके! आप क्यों दुर्बुबिसे दौड़ा दौड़ कर रहे हो। यह रत्नसार कुमार देवता
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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