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________________ mmwwmarwarimirmawwwimminimanavinainavi ३२० श्राद्धविधि प्रकरणं पंचातिचार से विशुद्ध पांचवां परिग्रह परिमाण व्रत पूर्वोक्त लिखे मुजब लेकर श्रावक धर्म परिपालन करता हुवा मित्रों सहित फिरता हुआ एक वक्त वह रोलंबरोल नामक बागमें आदर पूर्वक जाकर वहांकी शोभा देखते हुए समीपवत्ती क्रीड़ा योग्य एक पर्वत पर चढ़ा। वहां दिव्यरूप को धारण करनेवाले, दिव्य वस्त्र और दिव्य संगीतकी ध्वनिसे रमणीक मनुष्यके समान आकारवान् तथापि अश्वके समान मुखबाले एक अपूर्व किन्नर युग्मको देखकर साश्चर्य हो वह हसकर बोलने लगा कि क्या ये मनुष्य हैं या देवता ? यदि ऐसा हो तो इनका घोड़ेके समान मुख क्यों है ? मैं धारता हूं कि ये नर या किन्नर नहीं परन्तु सचमुच ही ये किसी द्विपान्तर में उत्पन्न हुये तिर्यंच पशु हैं अथवा ये किसी देवताके वाहन भी कल्पित किये जा सकते हैं। इस प्रकारका अरुचि कारक बचन सुनकर वह किन्नर मन ही मन खेद प्राप्त कर बोलने लगा कि, हे राजकुमार ! बिचार किये विना ऐसे कुवचन बोलकर ब्यर्थ ही मेरा मन क्यों दुःखी करता है। मैं तो इच्छानुसार रूप धारण कर विलास क्रीड़ा करनेवाला एक ब्यंतरिक देव हूँ। तू स्वयं ही पशु जेसा है। इसलिये तेरे पिताने तुझे घरसे बाहर निकाल दिया है। यदि ऐसा न हो तो अपने दरबार में तू अपने पदार्थोंका लाभ क्यों न उठा सके। इतना ही नहीं परन्तु तेरे दरवार में ऐसे ऐसे दैविक पदार्थ रहे हुए हैं कि जो एक बड़े देवताके पास भी न मिल सके ! और जो सदैव जिसकी इच्छा करते हो ऐसे पदार्थ भी तेरे दरवारमें मौजूद हैं तथापि तुझे उनकी बिलकुल खबर नहीं। तब फिर तू अपने घरका स्वामी किस तरह कहा जाय, इससे तू तो एक सामान्य नौकरके समान है। यदि ऐसा न हो तो जो जो पदार्थ तेरे नौकर जानते हैं उन पदार्थों की तुझे कुछ खबर नहीं । अहा हा! केसे खेदकी बात है ध्यान देकर सुन ! मैं तुझे उन बातोंसे परिचित करता है। तेरा पिता किसी समय कारणवशात् द्वीपान्तर में जाकर नील रंगकी कान्तिवाले एक समन्धकार नामक दिव्य अश्व-रत्न प्राप्त कर लाया है, परन्तु यदि तू उस अश्वरत्न का वर्णन सुने तो एक दफे आश्चर्य चकित हुये बिना न रहेगा। पतला और वक्र उस घोड़ेका मुख है, उसके कान लघु और स्थिति चंचल है। खड़ा रहने पर भी वह अत्यन्त चपलता करता है। स्कन्धार्गल (गरदन पर एक जातिका चिन्ह होता है ) और अनाड़ी राजाके समान वह अधिक क्रोधी है, तथापि जगद् भरकी इच्छने योग्य है। चाहे जब तक उसके कौतुक देखा करे तथापि उसके सर्वाग पर रहे हुये लक्षणोंकी रिद्धि पूर्णतया देखनेके लिये कोई भी समर्थ नहीं। इसलिये शास्त्रमें कहा है किःनिर्मासं मुखमण्डले परिमितं मध्ये लघुः कर्णयोः। स्कंधेवन्धुर मप्रमाणमुरसि स्निग्धं च रोमोदम्मे ।। पीनं पश्चिपपाश्वेयोः पृथुतरं पृष्ठे प्रधानं जवे। राजा वाजिन मारुरुरोह सकलयुक्त प्रशस्तैगुणः॥ निर्मास मुखका दिखाव, मध्यम भाग प्रमाणवाला, लघुकान, ऊंचा चढ़ता हुवा गर्दनका दिखाव, अपरिमित अंगुलवाली छाती, स्निग्ध और चमकदार रोमराजी, अतिपुष्ट पृष्ठभाग, पवनके समान तीव्र गतिवान् और अन्य भी समस्त लक्षण और गुणों सहित उस अश्वरत्न पर है राजन् ! तू सवार हो! वह घोड़ा सवारके मनकी स्पर्धाके समान प्रतिदिन सौ योजनकी गति करता है। संपदाके अभ्युदय को करनेवाले यदि उस अश्वरत्न पर बैठकर तू सवारी करे तो आजसे सातवें दिन जिससे अधिक दुनियां
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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