________________
२१
श्राद्धविधि प्रकरण करना कबूल नहीं किया। अंत में सारसी भी यौवनावस्था के सम्मुख आ पहुची। उस वक्त दोनों युवती बहिनों ने प्रीति पूर्वक यह प्रतिक्षा की कि हमसे परस्पर एक दूसरेका वियोग न सहा जायगा इसलिए दोनों का एकही बर के साथ विवाह होना उचित है। उन दोनों को प्रतिज्ञा किये बाद मातापिता ने उनके मनोज्ञ घर प्राप्त कराने के लिये ही वहांपर यथाविधि स्वयंवर मंडप की रचना की है। मंडप में इस प्रकार की अलौकिक मञ्च रखना करने में आई है जिसका वर्णन करने के लिए बड़े बड़े कवि भी विचार में डूब जाते हैं । प्रमाण में इतना ही कहना बस है कि वहांपर आपके समान अन्य भी बहुत से राजा आवेगे । तदर्थ वहांपर घास एवं धान्य के ऐसे बडे बडे पुंज सुशोभित किये हैं कि, जिनके सामने बडे बडे पवत मात कर दिये गये हैं । अंग,बंग, कलिंग, आंध्र, जालंधर, मारवाड, लाट, भोट, महाभोट, मेदपाट (मेवाड) विराट, गौड, चौड़, मराठा, कुरु, गुजराथ, भाभीर, काश्मीर, गोयल, पंचाल, मालव, हुणु, चीन, महाचीन कच्छ, वच्छ. कर्नाटक, कुंकण, नेपाल, कान्य. कुब्ज, कुंतल, मगध, नैषध,विदर्भ, सिंध, दावड़, इत्यादिक बहुतसे देशोंके राजा वहांपर आनेवाले हैं। इसलिए हमारे स्वामी ने आप ( मलयदेश के महाराजा) को निमंत्रण करने के लिए मुझे भेजा है। इसलिए आप वहां पधारकर स्वयंवर की शोभा बढ़ायेंगे ऐसी आशा है।” दूतके पूर्वोक्त वाक्य सुनते ही राजा का चित्त बड़ा प्रसन्न हुआ,परंतु विचार करते हुए वहां जाने पर स्वयंवर में एकत्रित हुए बहुत से राजाओं के बीच वे मुझे पसंद करगी या अन्य को। इस तरह के कन्याओं की प्राप्ति अप्राप्ति सम्बन्धी आशा और संशयरूप विचारों में राजा का मन दोलायमान होने लगा। अंत में राजा इस विचार पर आया कि आमंत्रण के अनुसार मुझे वहां जाना ही वाहिए । स्वयंवर में जाने को तैयार हो पक्षियों के शुभ शकुन पूर्वक उत्साह के साथ प्रयाण कर राजा देवपुर नगर में जा पहुंचा । आमन्त्रण के अनुसार दूसरे राजा भी वहांपर बहुनसे आ पहुंचे थे। वहां के विजयदेव राजा ने उन सबको बहुमान पूर्चक नगर में प्रवेश कराया। निर्धारित दिन आनेपर अत्यादर सहित यथायोग्य ऊंचे मंचकों पर सब राजाओं ने अपने आसन अंगीकार कर देव सभा के समान स्वयम्बर मंडप को शोभायुक्त किया। तदनन्तर स्नानपूर्वक शुभ चंदनादिक से अङ्गविलेपन कर शुविवस्त्रों से विभूषित हो सरस्वती और लक्ष्मी के समान हंसी और सारसी दोनों बहिने पालखी में बैठकर स्वयम्बर मंडप में आ विराजी । उस समय जिसप्रकार एक अत्युत्तम विक्रीय वस्तु को देखकर बहुत से ग्राहकों की दृष्टि और मन आकर्षित होता है उसीप्रकार उन रूप लावण्यपूर्ण कन्याओं को देख तमाम राजाओं की दृष्टि और मन आकर्षित होने लगा । वे एक दूसरे से बढ़कर अपने मन और दृष्टि को दौड़ाने लगे। एवं कामविवश हो विविधि प्रकार की चेष्टाएं तथा अपने स्वभावपूर्वक आशय जनाने के कार्य में लगगये । ठीक इसी समय वरमाला हाथ में लेकर दोनों कन्यायें स्वयंवरमंडप के मध्यगत-भाग में आकर खड़ी हो गई। सुवर्ण छड़ी को धारण करनेवाली कुलमहत्तरा प्रथम से ही सर्व वृत्तांत को जानती थी इसलिए सर्व राजपर्गियों का वर्णन करती हुई कन्याओं को विदित करने लगी कि, "हे सखी यह सर्व राजाओं का राजा राजगृही का स्वामी है। शत्रुके सुख को ध्वंस करने के कार्य में अत्यंत कुशल कौशल्य देशमें आई हुई कौशला का राजा है । स्वयंघरमंडप की शोभा का प्रकाशक यह गुर्जर देश का राजा है। सदा सौम्य और मनोहर ऋद्धि प्रापक यह कलिंग देश का राजा है । जिसकी