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________________ श्राद्धविधि प्रकरण के परिचित वालोंके पास जाने में बड़ा भार यंत्र पड़ता है। इस जगतमें हरएक स्वभावके मनुष्य हैं, जिसमें ऐसे भी है कि जो दूसरोंकी संपदा देख कर, स्वयं झुरा करते हैं। उनके हाथमें यदि कुछ जरा भी आ जाय तो वे तत्काल ही फंसा डालते हैं। विना कारण भी दूसरोंको फंसाने वाले दुष्ट पुरुष सदैव नीच कृत्योंके दाव तकते रहते हैं। इसलिए दरबारी मनुष्योंका परिचय रखना कहा है। गन्तव्यं रोजकुले दृष्टव्या राजपूजिताः लोकाः। यद्यपि न भवत्यर्था स्तथाप्यन बिलीयते ॥ ___ "सब मनुष्योंको राज दरबार में जाना चाहिये, वहाँ जाने आनेसे राजाके मान्य मनुष्यों को देखना, उनके साथ परिचय रखना, क्योंकि, यद्यपि वे कुछ दे नहीं देते तथापि उनके परिचय से अपने पर पड़ा हुवा कष्ट दूर हो सकता है" देशान्तर के आचार या जाने आनेके परिचयसे सर्वथा अनजान हो तो दैवयोग से उसकी जरूरत पड़ने पर वहाँ जाते समय उसे अनेक मुसीबतें भोगनी पड़े। इसलिये पुत्रको प्रथमसे ही सब बातोंमें निपुण करना आवश्यक है। पुत्रके समान पुत्रीका उचित ही जैसे घटित हो वैसे संभालना। उसमें भी माताको जैसे अपने पुत्र पुत्रीका उचित संभाले वैसे उससे भी अधिक सौतीसे पुत्र पुत्रीका उचिताचरण संभालने में विशेष सावधानता रखनी चाहिये। क्योंकि उन्हें बुरा लगनेमें कुछ भी देर नहीं लगती । "सगे सम्बन्धियोंका उचित" सयणाण समुचिअपिणं। जंते निगेह बुढ्ढी कज्जेसु॥ सम्माणिज्जसयाविहु। करिझ्झ हाणीसुवी समीबे॥ पिता, माता, और बहुके पक्षके जो लोग हों, उन्हें सगे कहते हैं। उन सगोंका उचित संभालने में यह विवार है कि, सगे सम्बन्धों लोगोंके पड़ोस में रहे तो बहुतसे कार्योकी हानि होती है। जिससे उनके घरसे दूर रहना और पुत्र जन्मादि के महोत्सव वगैरह कार्यो में बुलाकर उन्हें अवश्य मान देना, भोजन वस्त्रादि देना । इस प्रकार उनका उचिताचरण करना। सयपवि तेसिं वसण सवे सुहो अविपति अंगिसया। खीण विहवाण रोगाउराण कायव्व मुद्रणं ॥ अपने सगे समन्धियोंके कष्ट समय बिना ही बुलाये जाकर सहाय करना, और महोत्सवादिमें निमन्त्रण पूर्वक उन्हें सहायकारी बनना । यदि सगे सम्बन्धियों में कोई धर्म रहित हो गया हो या रोगादिसे ग्रस्त हो तो उसका यथाशक्ति उद्धार करने में तत्पर होना चाहिये। पातुरे व्यसने प्राप्ते, दुर्भिक्षे शत्रुसंकटे, राजद्वारे श्मशाने च, यस्तिष्ठति स बांधवाः॥ बीमारीमें किसी अकस्मात आ पड़े हुये कष्टमें दुर्भिक्षमें, शत्रुके संकटोंमें, गज दरवारी कार्योंमें और मृत्यु वगैरहके कार्यमें सहाय करे तो इसे बन्धू समझना चाहिये। . ... . ..
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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