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श्राद्धविधि प्रकरण
२५७ कबरे रंगके बिल्ल को साक्षी करके उसके पाससे उन्होंने सब द्रव्य ले लिया। वह व्यापारी एक एक का नाम स्थान ग्राम वगैरह पूछकर अपनी किताब में लिखकर अपने गांव चला गया। कितने एक समय बाद उन चोरोंके गांवके लोग जिनमें उन चोरोंमें से भी कितने एक थे उस व्यापारी के गांवके बाजार में कुछ माल खरीदनेको आये, तब उस व्यापारीने उनमेंसे कितने एक चोरोंको पहिचान कर उनसे अपना लेना मांगा। चोरोंने कबुल न किया; इससे उसने पकड़वा कर उन्हें न्याय दावारमें खींचा। दरवार में न्याय करते समय न्यायाधीशने बनियेसे साक्षी, गवाह मांगा। बनियेने कहा कि मैं साक्षीको बाहरसे बुला लाता हूं। बाहर आकर वह ब्यापारी जब इधर उधर फिर रहा था तब उसे एक काला बिल्ला मिला। उसे पकड़ कर अपने कपड़ेसे ढक कर दरवार में आकर कहने लगा कि इस वस्त्रमें मेरा साक्षी है; चोर बोले, बतला तो सही देखें तेरे साक्षीको। उसने वस्त्रका एक किनारा ऊंचा कर बिल्ला बतलाया। उस वक्त चोरोंमेंसे एक जना बोल उठा कि-नहीं नहीं यह बिल्ला नहीं !" न्यायाधीश पूछने लगा कि यह नहीं तो क्या वह दूसरा था ? वे सबके सब बोले, हां! यह बिलकुल नहीं; न्यायाधीशने पूछा कि-"वह कैसा था ?" चोर बोले-“वह तो कबरा था, और यह बिलकुल काला है।" बस! इतना मात्र बोलनेसे वे सचमुच पकड़े गये। इससे उन चोरोंने उस सेठका जितना धन लिया था वह सब व्याज सहित न्यायाधीशने वापिस दिलाया। इसलिये साक्षी बिना किसीको द्रव्य देना योग्य नहीं।
किसीके यहाँ गुप्त धरोहर न धरना एवं अपने पास भी किसीकी न रखना। चार सगे सम्बन्धी या मित्र मंडलको बीचमें रख कर ही धरोहर रखना या रखाना। तथा जब वापिस लेनी या देनी हो तब उन चार मनुष्योंको बीचमें रख कर लेना या देना परन्तु अकेले जाकर न लेना या अकेलेको न देना । धरोहर रखनेवाले को वह धरोहर अपने ही घरमें रखनी चाहिये। गहना हो तो उसे पहरना नहीं और यदि नगद रुपये हों तो उन्हें ब्याज वगैरह के उपयोग में न लेना। यदि अपना समय अच्छा न हो या अपने पर कुछ किसी तरहका भय आनेका मालूम हो तो अमानत रखनेवाले को बुला कर उसकी अमानत वापिस दे देना । यदि अमानत रखनेवाला कदापि कहीं मरण पाया हो तो उसके पुत्र स्त्री वगैरह को दे देना। या उसके पीछे जो उसका बारस हो सब लोगोंको विदित करके उसे दे देना और यदि उसका कोई वारिस ही न हो तो सब लोगोंके समक्ष विदित करके उसका धन धर्म मार्गमें खरच डालना।
"बही खातेके हिसाबमें आलस्य त्याग" किसीकी धरोहर या उधारका हिसाब किताब लिखनेमें जरा भी आलस्य न रखना। इसलिये शास्त्र में लिखा है कि "धनकी गांठ बान्धनेमें, परीक्षा करनेमें, गिननेमें, रक्षण करनेमें, खर्च करनेमें, नावाँ लिखनेमें इत्यादि कार्यमें जो मनुष्य आलस्य रखता है वह शीघ्र ही विनाशको प्राप्त होता है" पूर्वोक्त कारणोंमें जो मनुष्य आलस रख्खे तो भ्रांति पैदा हो कि अमुकके पास मेरा लेना है या देना? यह विचार नावाँ ठावा लिखनेमें आलस्य रखनेसे ही होता है और इससे अनेक प्रकारके नये कर्मबन्ध हुये बिना नहीं रहते। इसलिये पूर्वोक्त कार्यमें कदापि आलस्य न रखना चाहिये।
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