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________________ ww श्राद्धविधि प्रकरण मित्रता करना मुझे बिलकुल नहीं रुवता; क्योंकि जब हम उसके घर गये हों तब वह हमें कुछ मान सन्मान नहीं दे सकता और यदि वह हमारे घर आये तो हमें धन खरचना पड़े।' उपरोक्त युक्तिके अनुसार अपने समान लोगोंके साथ प्रीति रखना योग्य है। कदाचित् बड़ी सम्पदा वालेके साथ मित्रता हो तो उससे भी किसी समय दुःसाध्य कार्यकी सिद्धि और अन्य भी अनेक गुणोंकी प्राप्ति होती है । भाषामें भी कहा है कि स्वयं समर्थ हो कर रहना अथवा किसी बड़ेको अपने हाथ कर रखना जिससे मन इच्छित कार्य किया जा सके । काम कर लेनेमें इसके सिवा अन्य कोई उपाय नहीं। यदि कम संपदा वाला भी मित्र रक्खा हो तो वह भी समय पड़ने पर लाभ कारक हो जाता है, उससे कितनी एक बातोंका फायदा होता है । पंचोपाख्यान में कहा है कि "सबल और दुर्बल दोनों प्रकारके मित्र करना, क्योंकि यदि हाथीके चूहे मित्र थे तो उन्होंके उद्यमसे हाथी बन्धनसे छूट सका"। किसी समय जो कार्य छोटे मित्रसे बन सकता है वह बड़े धनवान से भी नहीं बन सकता । जैसे कि सुईका कार्य सुई ही कर सकती है परन्तु वह तरवार वगैरहसे नहीं बन सकता । घासका कार्य घाससे ही बन सकता है, परन्तु हाथीसे नहीं। “दाक्षिण्यता" मुखसे दाक्षिण्यता तो दुर्जनकी भी न छोड़ना, इसलिए कहा है कि सत्य बात कहनेसे मित्रके, सन्मान देनेसे सगे सम्बन्धियों के, प्रेम दिखलाने से और समय पर उचित वस्तु ला देनेसे स्त्री और नौकरोंके और दाक्षिण्यता रखनेसे दूसरे लोगोंके मनको हरन करना ( उन्होंके मनमें अप्रीति न आने देना)। जैसे कि किसी वक्त ऐसा भी समय आ जाय कि उस समय अपना कार्य सिद्ध कर लेने के लिये फल, दुष्ट, चुगलखोर लोगोंको भी आगे करना पड़ता है। इसलिए कहा है-रस लेने वाली जीभ जैसे क्लेशके रसिया दांतोंको आगे करके रस ले लेती है वैसे ही चतुर पुरुष किसी समय कहीं पर खल पुरुषोंको भी आगे करके काम निकाल लेता है। प्रायः कांटोंकी बाड़ बिना निर्वाह नहीं हो सकता, क्योंकि क्षेत्र, ग्राम, घर, बाग, बगीचोंकी मुख्य रक्षा उनसे ही होती है। "प्रीतिके स्थानमें लेन देन न करना" जहां प्रीति रखनेका विचार हो वहां पर द्रव्यका लेन देन सम्बन्ध न रखना। कहा है कि-- द्रव्यका लेन देन सम्बन्ध वहां ही करना कि जहां मित्रता रखनेका विचार न हो । तथा अपनी प्रतिष्ठा रखनेकी चाहना हो तो प्रीतिवान् के घरमें अपनी इच्छानुसार बैठ न रहना-उसकी इच्छानुसार बैठना।। सोमनीति में लिखा है कि-मित्रके साथ लेन देन और सहवास और कलह न करना; एवं किसीकी साक्षी रखे बिना मित्रके घर धरोहर न रखना । मित्रके साथ कहीं पर कुछ भी द्रव्य वगैरह भेजना योग्य नहीं क्योंकि चुराया और खुवाया वगैरह कितनेक कार्योंमें द्रव्य ही अविश्वास का कारण बनता है और अविश्वास ही अनर्थका मूल है । इसलिए कहा है कि जहाँ विश्वास न हो उसका विश्वास न रखना और विश्वास किया जाता हो उसका भी विश्वास न करना, क्योंकि विश्वासे ही भय उत्पन होता है।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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