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________________ श्राद्धविधि मकरण ૭ हमारा सुदिन है। आज ही हमारा जन्म और जीवन सार्थक हुवा। आज हमारा मन समता रूप अमृतके इससे भरे हुए कुंड में निमग्न हुवा मालूम होता है। ऐसी परम समता रूप सुख स्वादकी अवस्थाको प्राप्त होने पर भी कर्मयोगसे आर्त रौद्र ध्यान रूप ज्वालासे व्याप्त कुविकल्प- - खराब विचार रूप धूम्र के जालसे भरे हुये गृहस्थावस्था रूप अग्निमें रहना पड़ेगा इस लिए यदि इसी अवस्था में भगवान के ध्यानमें चिचकी लीनता रहते हुये हमारा आयुष्य पूर्ण हो जाय तो भवान्तरमें सुलभ बोधि भत्र सिद्धिकता अनेक सुख श्रेणियां प्राप्त की जा सकती हैं। इस प्रकारकी अनेक निर्मल शुभ भावनायें भाते हुए सचमुच ही उन दंपतिका आयुष्य पूर्ण हो जाने मानों हर्ष बेगले ही हृदय फट कर मृत्यु हुई हो इस प्रकार वहां ही काल करके वे दोनों जने चौथे देवलोक में देवता तथा उत्पन्न हुये। उन्होंके शरीरको व्यंतरिक देवता क्षीर समुद्रमें डाल आए। उस देवलोक में जावड़ देव बहुतले विमानवासी देवताओंके मानने योग्य महर्षिक होने पर भी इस शत्रुंजय पर्वतका महिम्म प्रसट करते रहता है । जाज नामक जाडका पुत्र तथा अन्य भी वहुतसे संघके लोग उन दोनों जनोंका मन्दिर के शिखर पर मृत्यु हुवा सुन कर बड़े शोकातुर हुए । तब चक्रेश्वरी देवीने वहां आकर उन्हें मीठे कसे समझा कर शोक निवारण क्रिया । जाज़ नाग भी ऐसे बड़े मांगलिक कार्यमें शोक करना उचित नहीं यह समझ कर संघको आगे करके गुरु द्वारा बतलाई हुई सेतिके अनुसार खेताद्रो शृंग ( गिरनार की टू क क वगैरह ) की यात्रा करके अपने शहरमें आया । वह अपने पिताके जैसा आकार पालता हुवा सुखमय दिन व्यतीत करने लगा । (विक्रमादित्य से १०८ वीं सालमें जावड़शाह का किया हुवा उद्धार हुवा ) ऋणके सम्बन्धमें प्रायः क्लेश नहीं मिट सकता और इसीसे बैर विरोधकी अत्यन्त वृद्धि होकर कितने एक भवों तक उसकी परम्परा में उत्पन्न होनेवाले दुःख सहन करने पड़ते हैं, इतना ही नहीं परन्तु उसके सहवास के सम्बन्ध से अन्य भी कितने एक मनुष्यों को पारस्परिक सम्बन्धके कारण दुःख भोगने पड़ते हैं इस लिए सर्वथा किसीका ऋण न रखना । उपरोक्त कारणसे ऋणका सम्बन्ध लेने वाला एवं देने वाला दोनों जनोंका उसी भवमें अपने सिरसे उतार डालना ही उचित है। दूसरे व्यापारके लेन देनमें भी यदि अपना द्रव्य अपने हाथसे पीछे न आया यदि वह सर्वथा न सा सकता हो तो यह नियम करना कि, मेरा लेना धर्मखाते है । इसी लिए श्रावक लोगोंको प्रायः अपने साश्रमों भाइयोंके साथ ही व्यापार करनेका कहा है; क्योंकि कदाचित् उनके पास धन यह भी गया हो तथापि वे धर्ममार्ग में बचें। यह भी स्वयं खर्चे हुएके समान गिनाया है इससे उसने धर्ममार्ग में खर्चा है ऐसा आशय रखकर जमा कर लेना चाहिये । कदाचित् यदि किसी म्लेच्छ के पास लेना रह जाता हो तो वह लेना धर्मादा खातेमें जमा कर लेना और अपने अवसान के समय भी उसे वोसरा देना उचित है जिससे उसे उसकी पापराशि न लगे। कदपि वह लेना धर्मादा खाते जमा किये बाद भी ग्रहले यदि पीछे आ जाय तो उसे अपने घर में न खर्च कर उसे श्री संघको सोंप कर अथवा धर्म मार्ग में खर्च है।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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