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श्राद्धविधि प्रकरण
२३३ जाकर देवपूजा की और बलिदान देकर शुद्ध देवताओं को शान्ति करके श्री चक्रेश्वरी देवीका ध्यान करके तप किया। जब एक महीनेके उपवास होगये तब श्री चक्रेश्वरी देवी तुष्टमान हो कहने लगी कि हे वत्स ! तू तक्षशिला नगरीमें जा, वहां पर नगरके मालिक जगन्मल्ल राजाकी आज्ञासे धर्मचक्र आगेसे तुझे वह बिम्व मिलेगा। प्रथम तीर्थकरोंने भी तुझे ही इस उद्धारका कर्ता बतलाया है। मैं तुझे सहाय करूंगी तु यह कार्य सुखसे कर, तू बड़ा भाग्यशाली होनेसे तेरेसे यह कार्य निर्विघ्नता पूर्वक बन सकेगा। अमृतके समान उसके वचन सुनकर अति प्रसन्न हो जाक्ड तक्षशिला में गया और वहांके जगन्मल्ल राजाको बहुतसा द्रव्य देकर संतोषित कर उसकी आज्ञासे धर्मचक्र के आगे आकर तीन प्रदक्षिणा पूर्वक पूजाकर ध्यान धरके सन्मुख खड़ा रही, तब बाहुबली की भरवाई हुई श्री ऋषभदेव, पुण्डरीक स्वामीकी मूर्ति सहित साक्षात् अपने पुण्य की मूर्तिके समान वे मूर्तियां प्रगट हुई। फिर पंचामृत स्नान महोत्सवादि करके उन मूर्तियोंको नगर में लाया । फिर वहांके राजा की सहायसे वहां रहे हुए अपने गोत्रीय लोगोंको अगवा बना करके उन मूर्तियोंको साथ ले प्रतिदिन एकासन करते हुए श्री शत्रुंजय तीर्थ तरफ आया। रास्ते में मिथ्यात्वी देवता द्वारा किये हुए भूमि कंप, महा mia, निर्धात, अग्नि दाह वगैरह अनेक उपसर्ग हुये तथापि उसके भाग्योदय के बलसे सर्व प्रकारके भयको उलंघन कर अन्तमें वह अपनी मधुमति नगरीमें आया ।
उस समय जावड़ शाहने अठारह जहाज मालके भर कर चीन, महाचीन, और भोट देशोंमें भेजे हुए थे, विपरीत वायु के प्रयोगसे या देव योगसे उस दिशामें न जाकर सुवर्ण दीपमें जा पहुंचे। वहां पर चुल्हे में सुलगाई हुई अग्निसे जमीनमेंकी रेती तक जानेके कारण सुवर्ण रूप हो जानेसे दूसरा माल खरीदना बन्द रख कर वहांसे वे रेती ( तेजम तूरी) के जहाज भरके पीछे लौट आये। उसी मार्गसे वे भाग्य योगसे मधुमति नगरीमें आ पहुंचे। उसी समय वज्रस्वामी भी मधुमतिके उद्यानमें आ बिराजे थे । एक आदमीने आकर जावड शाहको गुरु महाराज के आगमन की बधाई दी। ठीक उसी समय एक दूसरे आदमीने आकर बारह सालके द अकस्मात पीछे माये हुए अठारह जहाजोंकी खबर दी। ये दोनों समाचार एक ही समय मिलनेसे जावड शाह बड़ा प्रेसेन हुवा, परन्तु विचार करने लगा कि पहले जहाज देखने जाऊं या गुरु महाराजको वन्दन करने,
मैं उसने किया कि इस लोक और पर लोकमें हितदायक गुरु महाराजको प्रथम वन्दन करना चाहिए। इससे ऋद्धि सिद्धि सहित बड़े आडम्वरसे समहोत्सव गुरु श्री वज्रस्वामीको बन्दन करने गया । उस वक सुवर्ण कमल पर बैठे हुए जंगम तीर्थरूप श्री वज्रस्वामीको देखकर प्रमुदित हो वन्दम प्रदक्षिणा करके जब वह धर्म श्रवणकी मनीषाले गुरु देवके सम्मुख बैठता है उस वक्त अपने शरीरकी कान्तीसे वहांके सारे काश मैडल को भी देदीप्य करने वाला एक देवता आकाश मार्गसे उतर कर गुरुकों सविनय बन्दन कर बहने लगा कि, महाराज! मैं पूर्व मयमें तीर्थ मानपुर नगर के राजा शुकर्मका कपर्दी नामक पुत्र था, मैं मद्यपायी हवा थीं। एक समय दयाक समुद्र आप वहां पधारे थे तब आपने मुझे उपदेश देते हुए पंच पर्वणी महात्म्य, शत्रु अथ महात्म्यं, और प्रत्याख्यानके फट बतला कर प्रतिबोध दें मद्यमांस के परित्याग की प्रतिक्षा कराई थी। मैंने वह प्रत्याख्यान कितने एक वर्षोंतक पालन भी किये थे, परन्तु एक समय उष्ण कालके
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