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________________ Aaminatinumar श्राद्धविधि प्रकरण २२५ ___ यदि व्यापारी लक्ष्मी बढ़ानेकी इच्छा रखता हो तो नजरसे न देखे हुये वायदेके मालकी साई न दे। कदाचित् वैसा करने की आवश्यकता ही पड़े तो बहुत जनोंके साथ मिलकर करे परन्तु अकेला न करे । व्यापारमें क्षेत्रशुद्धि की भी जरूरत है। क्षेत्रशुद्धि याने ऐसे क्षेत्रमें व्यापार करे कि, जो स्वदेश गिना जाता हो, जहांके बहुतसे मनुष्य परिचित हों, और जहां अपने सगे सम्बन्धी रहते हों, जहांके व्यापारी सत्यमार्गके व्यवसायी हों, वैसे क्षेत्रमें व्यापार करे परन्तु जहां पर स्ववझुका प्रत्यक्ष भय हो (गांवके राज्यमें कुछ उपद्रव चलता हो उस वक्त) , दूसरे राजाका उपद्रव हो, जिस देशमें बीमारियां प्रचलित हों, जहांका हवापानी अच्छा न हो, या जहाँ पर प्रत्यक्षमें कोई बड़ा उपद्रव देख पड़ता हो वहां जाकर व्यापार न करना। उपरोक्त क्षेत्रमें जहां अपना धर्म सुसाध्य हो और आय भी अच्छी ही हो वहां व्यापार करना । बतलाये हुये दूषण वाले क्षेत्रमें यदि प्रत्यक्षमें अधिक लाभ मालूम होता हो तथापि व्यापार न करना चाहिये। क्योंकि, ऐसा करनेसे बड़ी मुसीबतें और हानि सहन करनी पड़ती हैं। इसी प्रकार व्यापारमें काल याने समय शुद्धि रखनेकी आवश्यकता है। कालसे तीन भठाइयोंमें, पर्व तिथियोंमें (जो आगे चलकर बतलायी जायेगी ) और वर्षाऋतुके विरुद्ध व्यापार न करना (जिस कालमें तीन प्रकारके चातुर्मासमें जिस २ पदार्थमें अधिक जीव पड़ते हैं उस कालमें उस पदार्थका ब्यापार न करना )। "भाव शुद्धि व्यापार या भाव विरुद्ध" भाव शुद्धिमें बड़ा विचार करनेकी जरूरत है सो इस प्रकार जैसे कि कोई क्षत्रिय जाति वाले, यबन जातीय राज दरबारी या राजाके साथ जो व्यापार करना हो वह सब जोखम वाला है । अधिक लाभ देख पड़ता हो तथापि वैसा व्यापार करनेमें प्रायः लाभ नहीं मिलता। क्योंकि अपने हाथसे दिया हुवा द्रव्य भी वापिस मांगने जाना भय पूर्ण होता है। इसलिये वैसे लोगोंके साथ खुले दिलसे थोड़ा ब्यापार भी किस तरह किया जाय ? अतः निम्न लिखे ब्यापारियोंके साथ ब्यापार न करना चाहिये। लाभ इच्छने वाले व्यापारियों को शस्त्र रखने वाले या ब्राह्मण ब्यापारीके साथ ब्यापार न करना। उधार, मंगउधार, विरोधिक साथ व्यापार न करना। इसलिए कहा है कि, कदाचित् संग्रह किया हुवा माल हो तो यह समय पर बेचनेसे लाभ प्राप्त किया जा सकता है परन्तु जिससे वैर विरोध उत्पन्न हो बैसे उधार देने वगैरहका ब्यापार करना, उचित नहीं। नटे विटे च वेश्यायां । य तकारे विशेषतः॥ उद्धारके न दातव्यं । मूलनाशो भविष्यति ॥ नाटक करने वाले, अविश्वासी, वेश्या, जुवे बाज, इतनोंको उधार न देना। इन्हें उधार देनेसे ब्याज मिलना तो दूर रहा परन्तु मूल द्रव्यका भी नाश होता है। ब्याजका व्यापार भी अधिक कीमती गहना रखकर ही करना उचित है, क्योंकि, यदि ऐसा न करे २६
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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