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श्राद्धविधि प्रकरण
तावचित्र श्रभिमाणं देही तिन जंपए जाव ॥ १ ॥
मनुष्य रूप, गुण, लज्जा, सत्य, कुलक्रम, पुरुषाभिमान, तब तक ही रख सकता है कि, जब तक वह देही, ऐसे दो अक्षर नहीं बोलता ।
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तृणं लघु तृणालं, तुलादपिहि याचकः ।
वायुना किं न नीतोसौ, मामपि याचयिष्यति ॥ २ ॥
सबसे हलके में हलका तृण है, उससे भी आकके रुईका फोया अधिक हलका गिना जाता है । परन्तु याचक उससे भी हलका है। इसमें कोई शंका करता है कि, यदि सबसे हलका याचक- भिक्षुक है तो फिर उसे वायु क्यों नहीं उड़ाता ? क्योंकि, जो २ हलके पदार्थ हैं उन्हें वायु आकाशमें उड़ा ले जाता है तब याचको क्यों नहीं उड़ाता ? इसका उत्तर यह है कि, वायुको भी याचकका भय लगा इस लिए नहीं उड़ाता । वायुने विचार किया कि, यदि मैं इसे उड़ाऊंगा तो मेरे पाससे भी यह कुछ याचना करेगा, क्योंकि जो याचक होता है उसे याचना करने में कुछ शरम नहीं होती, इससे वह हरएकके पास मांगे बिना नहीं रहता ।
रोगी चिरप्रवासी, परान्नभोजी च परवशः शायी । यज्जीवति तन्मरणं, यन्मरणं सो तस्य विश्रामः ॥ ३ ॥
रोगी, प्रवासी, (कासिद, दूत वगैरह या जिनकी सदैव फिरनेसे ही आजीविका है ऐसे लोग ) परान्नभोजी —— दूसरेके घरसे माँग खानेवाला, दूसरेकी अधीनतामें सो रहनेवाला, यद्यपि इतने जने जीते हैं तथापि उन्हें मृतक समान ही समझना । और उन्हें जो मृत्यु आती है वही उनके लिए विश्राम है क्योंकि इस प्रकार दुःखसे पेट भरना उससे मरना श्रेयस्कर है।
जो भिक्षा भोजी है वह प्रायः निश्चित होनेसे उसे आलस्य अधिक होता है। भूख बहुत होती है, अधिक खाता है, निद्रा बहुत होती है, लज्जा, मर्यादा कम होती है वगैरह इतने कारणोंसे विशेषतः वह कुछ काम भी नहीं कर सकता । भिक्षा मांगनेवाले को काम न सूझे परन्तु ऊपर लिखे हुए अवगुण तो उसमें जरूर ही होते हैं।
“भिक्षान्न खाने में अवगुण "
कई योगी हाथमें मांगनेका खप्पर लेकर, कन्धे पर भोली लटका कर भिक्षा मांगता हुवा, चलती हुई एक तेलीकी घाणी पर आ बैठा । उस वक्त उसकी झोलीमें मुंह डाल कर तेलीका बैल उसमें पड़े हुए टुकड़ ख लगा, , यह देख हा हा ! करके वह योगी उठकर बैलके मुहमेंसे टुकड़े खींचने लगा। यह देख तेली बोला - महाराज भीखको क्या भूख है ? इतने टूकड़ों पर तुम्हारा जी ललचा जाता है कि, जिससे बैलके मुहमेंसे पीछे खींच रहे हो । भिक्षु बोला- भीखको कुछ भूख नहीं यामे मुझे तो टुकड़े बहुत ही मिलते हैं और मिलगे भी, परन्तु यह बैल भीखके टुकड़े खाने लगेगा तो इससे यह आलसु न हो जाय । क्योंकि