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________________ श्राद्धविधि प्रकरण जानकार गुणानुरागी हो, धर्मवान्, गंभीर, बुद्धिमान, उदारता गुण वाला, त्यागी दूसरेका गुण देखकर खुशी होनेवाला, इस प्रकारका स्वामी (मालिक ) पुण्यसे ही मिलता है। करं व्यसनिनं लुब्ध । मप्रगल्भं सदामयं ॥ . मूर्खपन्याय कर्तार। नाधिपत्ये नियोजयेत् ॥२॥ क्रूर प्रकृति वाला, व्यसनी, किसी भी प्रकारके लांछन वाला, या बुरी आदत वाला, लोभी, वेसमझ, जन्म रोगी, मूर्ख, और सदैव अन्यायके आचरण करने वाला ऐसे स्वामीसे सदैव दूर रहना चाहिये। अर्थात् ऐसेकी नौकरी न करना। अविवेकिनि भूपाले । करोसाशा समृद्धये ॥ योजनानां शतं गत्वा । करोत्याशा समृद्धये ॥३॥ अविवेकी राजाके पाससे समृद्धि प्राप्त करनेकी आशा रखना यह सौ योजन दूर जाकर समृद्धि की आशा रखने जैसा है। कमन्दकीय नीतिसारमें कहा है किः वृद्धोपसेवी नृपतिः। सतां भवति संमतं ॥ प्रय माणोप्यसढते । कार्येष प्रवर्तते ॥ वृद्ध पुरुषोंसे सेवित राजाकी सेवा सजन पुरुषोंको सम्मत है। क्योंकि किसी दुष्टने उसे चढ़ाया हो याने उसके कान भरे हों तथापि वह बिना विचारे एक दम आगे कदम नहीं रखता। इसलिए उपरोक्त गुणवाले ही स्वामीकी सजन पुरुषको नौकरी करना योग्य है, स्वामीको भी सेवकको योग्य मान सन्मान आदर प्रमुख देना उचित है, इसके लिए नोतिमें कहा है कि,: निर्विशेषं यदा राजा। समं भृत्येषु वर्त्तते ॥ तदोद्यम समर्थाना। मुत्साहः परिहीयते ॥१॥ अधिक कार्य करने वाले और अधिक कार्य न करने वाले ऐसे दोनों पर जब स्वामी समान भावसे धर्ताव करता है तब उद्यम करने वालेकी उमंग नष्ट हो जाती है (इसलिए स्वामीको चाहिए कि वह अधिक उद्यम करने वालेको अधिक मान और अधिक वेतन दे। तथा सेवकको भी उचित है कि, भक्ति और विवक्षणता सहित कार्यमें प्रवृत्त हो) एतदर्थ कहा है कि, अप्रज्ञ न च कातरे न च गुणः स्यात्सानुरागे न कः। प्रज्ञा विक्रमसालिनोपि हि भबेल्किभक्ति हीनाल्फलं ॥ प्रज्ञा विक्रम भक्तयः समुदिताः येषां गुणाः भूतये॥ ते भृत्याः नृपतेः कलत्रमितरे संपत्सु चापत्सु च ॥२॥ जब नौकर मूर्ख और आलसु हो तब स्वामी उसे किस गुणके लिए मान दे ? बुद्धिवन्त और पराक्रमी. उद्यमी होने पर भी यदि नम्रता न हो तब वह कहांसे फल पाए ? अर्थात् न पाये। इसलिए जिसमें बुद्धि, उद्यम, नम्रता, आदि गुण हों वैसे ही नौकरोंको मान और लाभ मिलता है। भृत्य राजाओं को नौकर समान
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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