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श्राद्धविधि प्रकरणा
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स्वभाव ( ज्ञान दर्शन- सद्बोध ) से उत्पन्न हुवे भक्तिरसमें तल्लीन और देदीप्यमान सेवाकार्यमें एक एकसे अग्रसर हो कर नमस्कार करने में तत्पर ऐसे अमर ( देवता ) तथा मनुष्य समूहके मस्तक पर रहे हुये मुकुटके मणियोंकी कांतिरूप जलतरंगोसे धोये गये हैं चरणारविन्द जिसके ऐसे हे प्रभो ! आप जयवन्ते वर्त्ती । राग, द्वेष, मद, मत्सर, काम, क्रोधादि सर्व दोषोंको दूर करनेवाले, अपार संसार रूप समुद्र में डूबते हुवे प्राणियों को पंचमगति (मोक्ष) रूप तीरपर पहुंचाने में जहाजके समान हे देव ! आप जयवन्ते वर्तो । हे प्रभो ? आप सुन्दर सिद्धिरूप सुन्दरी के स्वामी हो, अजर, अमर, अचर, अडर, अपर ( जिससे बढ़कर अन्य कोई परोपकारी न हो ) अपरंपार ( सर्वोत्कृष्ट ) परमेश्वर, परम योगीश्वर हे श्री युगादि जिनेश्वर ! आपके चरण कमलोंमें भक्ति सहित नमस्कार हो" ।
इस प्रकार मनोहर गद्यभाषाकी रचनाम हर्षपूर्वक जिनराजकी स्तुति करके गांगील महर्षि कपट रहित हृदय से मृगध्वज राजाके प्रति बोला- "ऋतुध्वज राजाके कुलमें ध्वजा समान हे मृगध्वज राजा ? आप सुखसे पधारे हो ? हे वत्स ! तेरे अकस्मात् यहां आगमनसे और दर्शनसे मैं अत्यन्त प्रमुदित हुआ हूं । तूं आज हमारा अतिथि है, अतः इस मंदिर के पास रहे हुवे हमारे आश्रम में चल, हम वहां पर तेरा आतिथ्य सत्कार करें । क्योंकि तेरे जैसा अतिथि बड़े भाग्यसे प्राप्त होता है" ।
विचारमग्न हुआ, ऐं यह महर्षि ! मुझे क्यों इतना सराहता है ? मुझे बुलानेके लिये इतना ओग्रह क्यों ? यह मेरा नाम कैसे जानता होगा ? इत्यादि विचारोंसे विस्मित बना हुआ राजा चुपचाप महर्षि के साथ सानन्द उसके आश्रममें जा पहुंचा। क्योंकि गुणीजन गुणवानकी प्रार्थना कदापि भंग नहीं करते । आश्रममें ले जाकर गांगीलेय महर्षिने मृगध्वज राजाका बड़े आदर के साथ सत्कार किया । उचित सन्मान करने के बाद महर्षि राजासे बोला कि हे राजन् ! तेरे इस अकस्मात् समागमसे आज हम हमारा अहोभाग्य मानते । मेरे कुलमें अलंकाररूप और जगजनों के चक्षुओं को कामण करनेवाली, हमारे जीवन की सर्वस्व, और देवकन्या के समान रूपगुणशालिनी इस हमारी कमलमाला नामकी कन्याके योग्य आपही देख पड़ते हो, इसलिये हे राजन् हमारी प्राणप्रिय कन्याके साथ पाणीग्रहण करके हमें कृतार्थ करो । गांगीलेथ ऋषिका पूर्वोक्त रुचिकर कथन सुनकर राजाने हर्षपूर्वक स्वीकार किया, क्योंकि यह तो इसके लिये मन भाई खोराक थी । राजाकी सहर्ष सम्मति मिलने पर गांगीलेय ऋषिने अपनी नवयौवना कमलमाला कन्याका राजाके साथ पाणीग्रहण करा दिया। यह संयोग मिलाकर ऋषि वड़ा प्रसन्न हुआ। जैसे कमलपंक्तियों को देख कर राजहंस प्रसन्न होता वैसे हो वृक्षोंकी छाल के वस्त्र धारण करनेवाली और अपनी नैसर्गिक रूपलावण्य छटासे युवकों के मन को हरण करनेवाली कमलमाला को देखकर राजा अत्यन्त खुशी हुआ। राजाके इस लग्न समारंभ में दो चार तापसनियों के सिवाय धवलमंगल गानेवाली अन्य कोई स्त्री वहीं पर मौजूद न थी । गांगीलेय महर्षिने ही स्वयं लग्नका विधि विधान कराया । कन्याके सिबाय राजाको करमोचनमें अन्य कुछ देनेके लिये ॠषिके पास था ही क्या ? तथापि उन दम्पतीके सत्वर पुत्र प्राप्ति हो इस प्रकारका ऋषिजी ने आशीर्वाद रूप मंत्र समर्पण किया । विवाह कृत्य समाप्त होनेपर मृगध्वज राजा विनम्र भावसे ऋषिजीसे बोला कि अब हमें
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